उत्तराखंड एक समृद्ध संस्कृति संपन्न राज्य है। इस राज्य में मुख्यतः गढ़वाली ,कुमाउनी और जौनसारी संस्कृति के साथ कई प्रकार की संस्कृतियों का समागम है। उत्तराखंड एक प्राकृतिक प्रदेश है। प्राकृतिक सुंदरता के लिहाज़ से यह राज्य अत्यधिक सुंदर है। इसलिए उत्तराखंड के लोक पर्व , संस्कृति , और रिवाजों में इसकी झलक स्पष्ट दिखाई देती है उत्तराखंड के अत्यधिक त्यौहार प्रकृति की रक्षा और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने के लिए समर्पित हैं। सनातन धर्म के सभी त्यौहार उत्तराखंड में मनाए जाते हैं। लेकिन उनकी मनाने की परंपराएं भी प्रकृति को समर्पित होती हैं।
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उत्तराखंड के प्रमुख लोक पर्व –
1- घुघुतिया या उत्तरायणी :-
उत्तराखंड में सनातन संस्कृति के प्रमुख पर्व मकर संक्रांति को घुघुतिया के नाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के निवासी घुघुत नामक पकवान बनाते हैं। जिन्हे अगले दिन काले कावा गा कर कवों को खिलाते हैं। वहीं गढ़वाल क्षेत्र के निवासी इस दिन को खिचड़ी संग्रात के रूप में मनाते हैं। सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस दिन बड़े बड़े मेलों का आयोजन होता हैं। बागेश्वर में उतरायनी मेला और उत्तरकाशी में माघ मेले का आयोजन इसी दिन से शुरू होता है।
2– मरोज त्योहार
उत्तराखंड मसूरी के पास जौनपुर, जौनसार व रवाई घाटी में माघ के महीने में मनाये जाने वाला मरोज त्योहार मनाया जाता है ।इस त्योहार के दौरान हर घर में विभिन्न तरह के पकवान बनाए जाते हैं ।मरोज का त्योहार कई पीढ़ियों से मनाया जा रहा है । इस त्यौहार को मनाने गांव से बाहर रहने वाले सभी लोग अपने घर आते हैं. स्थानीय वाद्य यंत्रों के साथ इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है ।
3–उत्तराखंड का लोक पर्व सिर पंचमी अर्थात बसंत पंचमी :
बसंत पंचमी का त्यौहार उत्तराखंड में प्रकृति प्रेम और आपसी सद्भाव के रूप में मनाया जाता है। बसंत पंचमी के दिन उत्तराखंड में दान और स्नानं का विशेष महत्त्व है। स्थानीय पवित्र नदियों में स्नान या प्राकृतिक जल श्रोत पर स्नान शुभ माना जाता है। उसके बाद घर की लिपाई पोताई की जाती है।और घर की दहलीज में सरसों के पीले फूल डालें जाते हैं। घर में पूरी,वड़ा ,खीर, दाल भात ,और घुघते बनाये जाते हैं। मकर संक्रांति की तरह उत्तराखंड के कुमाऊं में पंचमी के दिन भी घुघते बनाये जाते हैं। उसके बाद कुलदेवों, ग्रामदेवों और पितरों की पूजा करके उनको भोग लगते हैं।
बच्चो को पीले कपडे पहनाते हैं। उत्तराखंड में बसंत पंचमी अवसर पर नई फसल की जौ की पत्तियों को देवताओं को चढ़ाकर ,एक दूसरे को आशीष के रूप में चढ़ाते हैं। इसलिए बसंत पंचमी को उत्तराखंड में जौ त्यार भी कहा जाता है। घर में महिलाये जौ की पत्तियों को दरवाजों पर लगाती हैं। जौ इस समय नई फसल होती है। नई फसल होने के साथ जौ को सुख और समृद्धि का प्रतीक मन जाता है। इसलिए इस शुभ दिन इसे देवताओं से लेकर घर तक सबको अर्पित किया जाता है या चढ़ाया जाता है। यह दिन अत्यंत शुभ माना जाता है।
इसलिए इस दिन बिना मुहूर्त निकाले सरे शुभ काम किये जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन उत्तराखंड में बच्चों के कान नाक छेदन , यज्ञोपवीत संस्कार , लड़की को पिठ्या लगाना ,साग रखना अर्थात कुमाउनी में सगाई करना एवं शादी का मुहर्त व् तिथि निश्चित करना ,छोटे बच्चों का अन्नप्राशन जैसे शुभ कार्य किये जाते हैं।
उत्तराखंड का खास लोकपर्व फूलदेई या फूल संक्रांति पर्व :
फूलदेई त्योहार मुख्यतः छोटे छोटे बच्चो द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है। फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं। प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है।
कुमाऊनी होली :
होली भारत के प्रमुख त्योहारों में से प्रसिद्ध त्यौहार है। भारत में हर समाज समुदाय के लोग अपने अपने अंदाज में होली की खुशिया मनाते हैं। यहाँ सबसे अधिक बरसाने की लठ मार होली प्रसिद्ध है ,उसके बाद उत्तराखंड की कुमाउनी होली प्रसिद्ध है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में वैसे तो बैठकी होली पौष मास से शुरू हो जाती है।
और मार्च में रंग एकादशी से खड़ी होली शुरू हो जाती है ,जो होलिका दहन तक चलती है। इन बैठकी और खड़ी होलियों में ,शास्त्रीय होलियां गाई जाती हैं। इन होली गीतों में अवधि और उर्दू का प्रभाव दिखता है। होली के दिनों में पूरा उत्तराखंड होली के रंगों में डूबा रहता है। हर जगह होली गीतों का आयोजन चलता है।
विषुवत संक्रांति या बुढ़ त्यार:
प्रत्येक साल बैसाख माह के संक्रांति तिथि को भगवान सूर्यदेव अपनी श्रेष्ठ राशी मेष राशी में विचरण करते हैं।इस स्थिति या संक्रांति को विषुवत संक्रांति या विशुवती त्योहार के रूप में मनाते हैं। उत्तराखंड की लोक भाषा कुमाऊनी में इस त्यौहार को बिखोती त्योहार कहते हैं।
विषुवत संक्रांति को विष का निदान करने वाली संक्रांति भी कहा जाता है। कहा जाता है, इस दिन दान स्नान से खतरनाक से खतरनाक विष का निदान हो जाता है। विषुवत संक्रांति के दिन गंगा स्नान का महत्व बताया गया है। बिखौती का मतलब भी कुमाउनी में विष का निदान होता है। बिखौती त्यौहार को कुमाऊ के कुछ क्षेत्रों में बुढ़ त्यार भी कहा जाता है।
घ्वीड़ संक्रांति :-
उत्तराखंड गढ़वाल का लोक पर्व घ्वीड़ संक्रांति ,घोल्ड संक्रांति ,घोलड संक्रांति या घोरड़ संक्रांति के नामों से मनाया जाने वाला त्योहार ,ज्येष्ठ मास की वृष संक्रांति 14 या 15 मई को मनाया जाता है। यह त्योहार भी उत्तराखंड के अन्य लोक त्योहारों की तरह प्रकृति को समर्पित है। घवीड संक्रांति के दिन गढ़वाल में नए अनाज (रवि की फसल, गेंहू और मसूर ) के घवीड बनाये जाते हैं। और अपने पितरों और कुल देवताओं को चढ़ा कर ,और बच्चों को खेलने एवं खाने देते हैं।
उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला –
हरेला पर्व उत्तराखंड का सबसे बड़ा लोकपर्व है। मूलतः कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाने वाला यह पर्व वर्तमान में सम्पूर्ण उत्तराखंड में मनाया जाता है। प्रकृति की मदद का आभार उसकी रक्षा और पूजा के रूप में प्रकट करने का पर्व है हरेला। हरेले के दिन पेड़ लगाकर प्रकृति के सवर्धन में अपनी तरफ से एक छोटा सा योगदान देकर प्रकृति के चिरायु रहने की कामना की जाती है। हरेला त्यौहार सावन माह की कर्क संक्रांति को मनाया जाता है। अर्थात हरेला प्रतिवर्ष 16 जुलाई के आस पास मनाया जाता है।
घी संक्रांति –
घी संक्रांति का उत्तराखंड के लोकपर्व की सूची में विशेष स्थान है। घी संक्रांति, घी त्यार ,ओलगिया या घ्यू त्यार प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह की सिंह संक्रांति के दिन मनाया जाता है। यह अच्छे स्वास्थ पर आधारित पर्व है।लोक मान्यता के अनुसार इस दिन घी खाना जरूरी होता है। कहते हैं, जो इस दिन घी नही खाता उसे अगले जन्म में घोंघा( गनेल) बनना पड़ता है।
घी त्यार के दिन खाने के साथ घी का सेवन जरूर किया जाता है, और घी से बने पकवान बनाये जाते हैं। इस दिन सबके सिर में घी रखते हैं। घी संक्रांति या घी त्यार के दिन दूध दही, फल सब्जियों के उपहार एक दूसरे को बाटे जाते हैं। इस परम्परा को उत्तराखंड में ओग देने की परम्परा या ओलग परम्परा कहा जाता है। इसीलिए इस त्यौहार को ओलगिया त्यौहार, ओगी त्यार भी कहा जाता है।
खतड़ुवा त्यार –
आश्विन मास की संक्रांति के दिन उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल के लोग खतडुवा लोक पर्व मनाते हैं। अश्विन संक्रांति को कन्या संक्रांति भी कहते हैं। इस दिन भगवान सूर्यदेव सिंह राशि की यात्रा समाप्त कर कन्या राशि मे प्रवेश करते हैं। खतड़वा पर्व मुख्यतः शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक जाड़े से रक्षा की कामना तथा पशुओं की रोगों और ठंड से रक्षा की कामना के रूप में मनाया जाता है। कुछ लोक कथाओं के अनुसार खतड़वा पर्व को कुमाऊँ मंडल के लोग अपने सेनापति अपने राजा की विजय की खुशी में मनाते हैं। पहले जमाने मे संचार के साधन नही थे, उस समय ऊँची ऊँची चोटियों पर आग जला कर संदेश प्रसारित किए जाते थे।
संयोगवश अश्विन संक्रांति किसी राजा की विजय हुई हो या ऊँची चोटियों पर आग जला के संदेश पहुचाया हो, और लोगो ने इसे खतड़वा त्यौहार के साथ जोड़ दिया। जबकि किसी भी इतिहासकार ने यह स्पष्ट नही किया कि यह त्यौहार विजय के प्रतीक का त्यौहार है। और खतडूवा पर्व मनाने की विधियों और परम्परा से भी यह स्पष्ट होता है,कि खतड़वा त्यौहार जाड़ो के आगमन का प्रतीक तथा जाड़ो से रक्षा के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
ईगास बग्वाल –
उत्तराखंड के लोक पर्वों की सूची में अपना विशेष स्थान रखने वाला लोक पर्व इगास बग्वाल। मुख्य दीपावली के ग्यारह दिन बाद उत्तराखंड के गढ़वाल में मनाया जाने वाली दीपावली है इगास बग्वाल। ईगास बग्वाल मतलब एकादशी को किया जाने वाला पत्थर युद्ध अभ्यास । कालांतर में पत्थर युद्ध के अभ्यास की परंपरा खत्म हो गई और कार्तिक एकादशी के दिन उत्तराखंड के वीर भड़ श्री माधो सिंह भंडारी तिब्बत विजय करके लौटे तो उनकी विजय के उपलक्ष में इस दिन उत्सव मनाया गया।
और वीर माधो सिंह भंडारी और गढ़वाल की सेना के युद्धरत होने के कारण ,हो सकता प्रजा ने भी अमावस्या की दीपावली नही मनाई और विजय मिलने के बाद ही सबने साथ में खुशियां मनाई । और प्रतिवर्ष उत्तराखंड गढ़वाल में यह पर्व विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इगास बग्वाल के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
मंगसीर बग्वाल –
मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह उत्सव ,हिमालयी क्षेत्रों का एक खास त्यौहार है ,जो मैदानी दीवाली के ठीक एक माह बाद मार्गशीष की अमावस्या को मनाया जाता है। हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में इसे कहीं बूढी दीवाली कही ,कोलेरी दीवाली ,पहाड़ी दिवाली के नाम से मनाया जाता है। उत्तराखंड के टिहरी ,उत्तरकाशी जनपदों के रवाईं ,जौनपुर उत्तरकाशी ,टनकौर आदि में बग्वाली, मंगसीर बग्वाल और जौनसार बावर में यह पर्व बूढ़ी दीवाली के नाम से पांच दिन मनाया जाता है। मंगसीर बग्वाल उत्तराखंड की बूढ़ी दीवाली के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ क्लीक करें।
उपसंहार –
उत्तराखंड लोक पर्वों का और परम्पराओं का प्रदेश है। यहाँ की परम्पराएं और त्योहार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से जुड़ी है। प्रकृति से प्रेम , प्रकृति की रक्षा और प्रकृति का संवर्धन हमारी परंपराओं और लोक पर्वों में स्पष्ट दिखाई देता है।
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