मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह उत्सव ,हिमालयी क्षेत्रों का एक खास त्यौहार है ,जो मैदानी दीवाली के ठीक एक माह बाद मार्गशीष की अमावस्या को मनाया जाता है। हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में इसे कहीं बूढी दीवाली कही ,कोलेरी दीवाली ,पहाड़ी दिवाली के नाम से मनाया जाता है। उत्तराखंड के टिहरी ,उत्तरकाशी जनपदों के रवाईं ,जौनपुर उत्तरकाशी ,टनकौर आदि में बग्वाली, मंगसीर बग्वाल और जौनसार बावर में यह पर्व बूढ़ी दीवाली के नाम से पांच दिन मनाया जाता है।
इसे पढ़े – जौनसार की बूढी दीवाली के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़े।
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क्यों मानते हैं मंगसीर बग्वाल :-
उत्तराखंड के वीर भड़ो, माधो सिंह भंडारी और लोदी रीखोला के तिब्बत युद्ध जीत कर आने की खुशी में मनाई जाती है। मंगसीर बग्वाल सन 1632 में गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शाशन काल मे ,गढ़वाल और तिब्बत सेना के बीच युद्ध हुवा था। गढ़वाल की सेना का नेतृत्व माधो सिंह भंडारी और लोदी रीखोला ने किया था। मुख्य दीवाली को गढ़वाल सेना और गढ़वाल के वीर सेनापति युद्ध मे फसे होने के कारण ,गढ़वाल में मुख्य दीवाली नही मनाई गई। कार्तिक एकादशी को इनके जीत की खुशी में या वापस आने की खुशी में इगाश मनाई गई। और इनके वापस अपने घर मलेथा आने की खुशी में प्रतिवर्ष मंगसीर बग्वाल मनाई जाती है।
कैसे मानते हैं ,मंगसीर बग्वाल –
पांच दिन तक धूम धाम से मनाये जाने वाला यह त्यौहार संस्कृति संपन्न त्यौहार होता है। मूलतः मंगसीर बग्वाल के नाम से यह पर्व उत्तरकाशी के गंगा घाटी ,जौनपुर ,बूढ़ा केदार आदि क्षेत्रों में मनाया जाता है। इसे बाड़ाहाट की बग्वाल के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व मुख्यतः पांच दिन तक मानाया जाता है।
पहले दिन होता है ‘असक्या ‘ –
इस दिन दही के साथ खाये जाने मक्के और झंगोरे से बना विशेष पकवान बनाया जाता है। इसे अश्का कहते हैं। वाद्य बजाने वालों द्वारा प्रत्येक घर में शुभकामनायें दी जाती हैं।
दूसरे दिन होता है ,”पकौड़िया ” –
इस दिन उड़द की दाल के पकोड़े बनाये जाते हैं। उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में इन्हे बड़े भी कहते हैं। लोग नए वस्त्र धारण करते हैं। गावं के लोग सामूहिक रूप से जंगल जाकर लकड़ियां लाते है।
मंगसीर बग्वाल तीसरे दिन मनाया जाता है ” बराज “
मंगसीर बग्वाल के तीसरे दिन राजा बलि की स्मृति में बराज मनाया जाता है। इस दिन वाद्य यत्रं बजाने वाले अपने वाद्य यंत्रों के माध्यम से मंगलकामनाएं देते हैं। हरियाली दी जाती है। इस हरियाली को सर्वप्रथम चौरी में चढ़ाने के बाद घरों में बाटा जाता है। बराज का सम्बन्ध भगवान् विष्णु के वामन अवतार से जोड़ा जाता है। इस अवसर पर चौरी में नृत्य का आयोजन भी किया जाता है। इस दिन विवाहिता लड़कियों को पैतृक सम्पति में हिस्सा बांटा जाता है।
मंगसीर बग्वाल की रस्साकस्सी –
बराज की शाम को भांड का आयोजन किया जाता है ,यह सभी गावों में नहीं होती। मंगसीर बग्वाल की भांड का अर्थ होता है , बावई घास से बने नाग के प्रतीक रस्सों से रस्साकस्सी। जिसे कुछ लोग समुद्र मंथन के समय प्रयुक्त वासुकि नाग से जोड़ते हैं ,और कोई संगचुराणी नागिन से। इसके बारे में मान्यता है कि यह एक नागिन थी ,जिसे लोगों ने मार डाला। जहाँ पर इसे मारा वहां बावई घास उग गई। नागिन के श्राप से बचने के लिए लोग उससे उगी घास से शाम को खुले मैदान में रस्साकस्सी खेलते हैं। इसमें एक सिरे पर गावं में आये हुए मेहमान तथा दूसरे तरफ गावं के लोग रहते हैं। रस्सा टूटने के बाद हार जीत के फैसले के बाद रासो नृत्य का आयोजन होता है। कही उस रस्सी के टुकड़ों को छत पर रखते हैं। और कही उनको बांटने की परम्परा है।
मंगसीर बग्वाल के चौथे दिन होता है बुड़ा – खुडा –
चौथे दिन गावं में आये अथितियों का सम्मान होता है , जिसे बुड़ा -खुडा कहते हैं। इसमें वाद्य बाजको को त्यार दिया जाता है। बाजगियो के घर , रात भर उत्सव मनाया जाता है।
पांचवा दिन बुड़ियात का –
पांचवे दिन गांव में सामूहिक मंडाण होता है जिसे बुड़ियात कहा जाता है।
उत्तरकाशी में बाड़ाहाट की बग्वाल –
उत्तरकाशी में 2007 से स्थानीय लोगो द्वारा मंगसीर बग्वाल के अवसर पर बाडाहाट की मंगसीर बग्वाल उत्सव मनाया जाता है। जिसमे गढ़भोज , गढ़ बाजणा ,गढ़ बाजार और गढ़ संग्राहलय का तीन दिवसीय कार्यक्रम होता है।