पंथ्या काला उर्फ़ पंथ्या दादा को राजशाही और निरंकुशता के विरोध में बलिदान देने वाले पहाड़ के पहले बालक के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने पौड़ी के सुमाड़ी गांव में राजा मेदनीशाह के निरंकुशता भरे निर्णय के विरोध में आत्मदाह कर लिया था। इस पोस्ट में हमारे प्रमुख सहयोगी प्रदीप बिल्जवान बिलोचन जी ने पंथ्या दादा की कहानी को काव्यात्मक रूप में लिखा है। उम्मीद है यह कहानी आपको पसंद आएगी।
Table of Contents
पंथ्या दादा की कहानी काव्यात्मक रूप में –
वीर और स्वाभिमानी गाथा पंथ्या दादा की पौड़ी के सुमाड़ी गांव के वे स्वाभिमानी महापुरुष, पंथ्या दादा,अल्पावस्था में ही अनाथ हो जाते हैं । जो करके बलिदान अपना आज भी वहां पितर के, रूप में सदा से पूजे जाते हैं ।
कहानी इनकी पंवार वंश के राजा,
48 वें मेदिनिशाह से जोड़ी जाती है ।
जो गढ़वाल में राजशाही 1676 से,
1699 के बीच मानी जाती है ।
घटना यह साल 325 से पुरानी है ।
जब से पंथ्या दादा की कहानी गढ़ी जाती है ।
दौरान 1552 में राजा अजयपाल ने राजधानी,
जब चांदपुरगढ़ से देवलगढ़ बसाई जाती है ।
कुलदेवी मां गौरा ने तब काला नामक,
ब्राह्मणों को, सुमाड़ी का क्षेत्र दे दिया था ।
और कोई भी कर न लेने का आदेश भी दिया था ।
लगभग पौने 2 साल तक व्यवस्था यह चलती रही ।
लेकिन राजा अजयपाल के बाद उसके पुत्र,
मेदिनीशाह के दरबारियों को बात यह नहीं जची ।
सुमाडी गांव के सुखराम काला,
जो बजीर राजा मेदिनिशाह का था ।
दरबारियों को जो कतई नही भाता था ।
उन्होंने तब राजा के कान भरने शुरू कर दिए ।
कहा उन्होने तब राजा से कर गांव,
सुमाडी वालों से भी लेना शुरू कर दीजिए ।
राजा दरबारियों की बातों में आ गया ।
उसने भेज बजीर को कर देने का,
राजा का फरमान गांव सुमाडी वालों,
को राजा के आदेश के अनुसार दे आया ।
गांव वालों ने कर देने की बात से,
सरासर इनकार कर दिया ।
राजा ने तब इसे भी सरासर,
अपना अपमान समझ लिया ।
अब राजा ने सख्ती बरती और कहा,
या तो वे कर दें या फिर गांव छोड़ दें ।
बात यह तो घबराने वाली थी, तब रातों,
रात गांव वालों को पंचायत बुलाने वाली थी ।
पंथ्या दादा ने तब भरी पंचायत में कहा,
हम मर जाएंगे पर कर नहीं देंगे ।
तब राजा ने कहा कि यदि हम कर नही लेंगे ।
तो गांव में किसी एक की बलि देंगे ।
आदेश ही यह कुछ ऐसा था कि,
गांव वाले सारे घबरा गए ।
पर अपने स्वाभिमान पर जीने,
वाले पंथ्या दादा ने शब्द अपने,
तब वापस नहीं लिए ।
पंथ्या के भाई और भाभी ने तब यह सोचा कहीं,
कारण इसके गांव परेशानी में न पड़ जाए ।
और दिया आदेश दादा को कि वह ससुराल
फरासू, अपनी दीदी के यहां चला जाए ।
तब वह मानकर आज्ञा अपने भाई की,
ससुराल अपनी दीदी की वह पहुंच गया ।
एक दिन दीदी ने उसकी गायों को,
चुगाने जंगल में उसे भेज दिया ।
जाकर के जंगल थकान,
से कुछ सुस्ताने वही लगा ।
और सपने में अपनी कुलदेवी,
मां गौरा को देख सहसा जैसे जगा ।
मां गौरा ने तब कहा उससे कि,
राजा नहीं मान रहा है ।
विपदा का जैसे अब भान आ रहा है ।
सांय का वह तब समय था दीदी को,
बता वह गांव अपने सुमाडी चला गया ।
पहुंचकर वहां तब पंथ्या को देने को कुटुंब से,
उसके एक बलि को दिल को उसके तब दहला दिया ।
कहा पंथ्या दादा ने हमें अपनी ही परम्परा में रहना है।
स्वाभिमान से सर उठाकर हमें अब जीना है ।
पंथ्या दादा ने कहा कि विरोध में,
इसके मैं अब आत्मदाह करूंगा ।
मां गौरा के अग्निकुंड में तब कूदूंगा ।
16 साल की उमर में तब वह कुलदेवी,
मां गौरा के मंदिर में पहुंच गया ।
और नवाकर शीश मां को तब वह,
अग्निकुण्ड में जैसे निडर हो कूद गया ।
देखकर दृश्य यह उसकी पत्नी भद्रा
भी यह सब सहन नही कर पाई ।
और उसी अग्निकुंड में तब वह भी,
अपने प्राणों की आहुति दे आई ।
पहुंची राजा तक जब यह बात,
तो तब वह घबरा गया ।
कर दे न जनता कोई विद्रोह तो उसने,
कर को कुछ समय के लिए टाल लिया ।
गांव वालों ने तब राजा को ब्रह्महत्या,
का भय दिखलाया हो न उसके साथ कुछ,
अनहोनी भान इसका भी जतलाया।
राजा ने तब विधि विधान से मां,
भगवती का पूजा पाठ रचाया ।
राजा ने तब उनकी हर साल,
पूजा करने के वचन दिए ।
और सदा स्वाभिमान से जीने,
वाले,पंथ्या दादा तब हर इक,
वर्ष पितरों के रूप में पूजे गए ।
लेख और लेखक -पंथ्या दादा की कहानी को काव्य रूप में भेजने वाले प्रदीप बिलजवान जी उत्तराखंड के लिए समर्पित रचनाएँ देवभूमी दर्शन के लिए नियमित भेजते रहते हैं। ग्राम बमनगांव पोस्ट पोखरी पट्टी क्विलि जिला टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड के रहने वाले प्रदीप जी शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं।
इन्हे भी पढ़े _
कंडोलिया देवता के रूप में विराजते हैं, गोलू देवता पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड में
हमारे फेसबुक पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।