पाला बिसाऊ परंपरा: उत्तराखंड के ऐतिहासिक पन्नों, विशेषकर टिहरी रियासत के कालखंड में कई ऐसी प्रशासनिक व्यवस्थाओं का जिक्र मिलता है, जो आज के समय में अकल्पनीय लगती हैं। इनमें से एक सबसे चर्चित और दमनकारी व्यवस्था थी— ‘पाला बिसाऊ परंपरा’ (Pala Bisau Tradition)। यह केवल एक कर (Tax) नहीं था, बल्कि शोषण का एक ऐसा माध्यम था, जिससे पहाड़ की भोली-भाली जनता वर्षों तक त्रस्त रही। आइए जानते हैं कि आखिर पाला बिसाऊ परंपरा क्या थी और इसने आम जनजीवन को कैसे प्रभावित किया।
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पाला बिसाऊ परंपरा क्या थी? (What was Pala Bisau Tradition?) –
ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, पाला बिसाऊ परंपरा टिहरी रियासत के समय प्रजा पर लगाया गया एक अनिवार्य ‘कर’ था। इस परंपरा के अंतर्गत राज्य के प्रत्येक परिवार को साल भर में एक निश्चित मात्रा में अनाज, पशु और अन्य सामग्री राजदरबार में जमा करनी होती थी। यह कर नकद रूप में न होकर ‘वस्तु’ के रूप में होता था। पाला बिसाऊ के तहत एक परिवार को प्रतिवर्ष निम्नलिखित सामग्री राजकोष में देनी पड़ती थी:
- पशुओं के लिए चारा: एक बड़ा बोझा घास (राजदरबार के घोड़ों और पशुओं के लिए)।
- चावल: चार पाथा (लगभग 8 सेर) — राज परिवार और कर्मचारियों के भोजन हेतु।
- गेहूं: दो पाथा।
- घी: एक सेर (शुद्ध पहाड़ी घी)।
- पशु धन: एक बकरा।
पावती (रसीद) और पटवारी का खौफ-
इस परंपरा की जटिलता केवल सामान देने तक सीमित नहीं थी। सामान को राजदरबार तक पहुँचाने के बाद, संबंधित व्यक्ति को वहां से एक पावती (रसीद) प्राप्त करनी होती थी। यह रसीद इस बात का प्रमाण होती थी कि अमुक परिवार ने अपना वार्षिक कर चुका दिया है।
इसके बाद, वह रसीद लाकर अपनी पट्टी (क्षेत्र) के पटवारी को दिखानी पड़ती थी। नियम इतने कठोर थे कि यदि कोई परिवार का मुखिया रसीद प्रस्तुत नहीं कर पाता, तो उसे सीधा जेल की सजा सुना दी जाती थी।
पाला बिसाऊ की आड़ में ‘बेगार’ और शोषण –
पाला बिसाऊ परंपरा का सबसे काला पक्ष राज कर्मचारियों का भ्रष्टाचार था। जब दूर-दराज के गांवों से लोग अपना सामान लेकर राजदरबार पहुंचते थे, तो कर्मचारी उन्हें रसीद देने में जानबूझकर देरी करते थे।रसीद के लिए लोगों को हफ्तों तक इंतजार कराया जाता था।
बेगार (Unpaid Labor): जब तक रसीद नहीं मिलती, ग्रामीण वहीं रुके रहते थे। इस मजबूरी का फायदा उठाकर कर्मचारी उनसे अपना निजी काम और दरबार की ‘बेगार’ (बिना पैसे की मजदूरी) करवाते थे। इस प्रकार, पाला बिसाऊ परंपरा के कारण जनता का दोहरा शोषण होता था ,एक तरफ अपनी मेहनत की कमाई कर के रूप में देना और दूसरी तरफ रसीद पाने के लिए हफ्तों तक मुफ्त गुलामी करना।
नोट: यह लेख ऐतिहासिक संदर्भों और पाला बिसाऊ परंपरा से जुड़े तथ्यों पर आधारित है। इस लेख का संदर्भ उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक से लिया गया है।
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