Thursday, March 6, 2025
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कुमाऊनी होली का इतिहास | कुमाऊनी होली पर निबंध | Kumaoni Holi

कुमाऊनी होली (Kumaoni Holi) उत्तराखंड की एक अनूठी सांगीतिक परंपरा है, जिसका इतिहास चंद राजाओं के समय से जुड़ा है। जानिए बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली के महत्व, परंपराएँ और सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ी विशेष जानकारियाँ।

होली : सनातन परंपरा का प्रमुख त्यौहार :-

होली सनातन परंपरा का प्रमुख त्यौहार है। भारत में यह अत्यंत हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों और राज्यों में अलग-अलग प्रकार से होली मनाई जाती है। इनमें दो प्रमुख होली उत्सव विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं – उत्तराखंड की कुमाऊनी होली (Kumaoni Holi) और बरसाने की होली।

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बरसाने की होली के साथ-साथ उत्तराखंड की कुमाऊनी होली (Kumaoni Holi) विश्व प्रसिद्ध है। यह 2 से 3 महीने तक चलने वाला संगीतमय त्यौहार है और विश्व की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा माना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार, कुमाऊनी होली का संबंध चंद शासकों के काल से है। यह होली 1870 ई. से वार्षिक उत्सव के रूप में मनाई जा रही है। इससे पहले होली की नियमित बैठकें हुआ करती थीं।

कुमाऊनी होली के प्रकार –

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कुमाऊनी होली (Kumaoni Holi) मुख्यतः शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत के मिश्रण पर आधारित होती है। यह होली ब्रज और खड़ी बोली में गाई जाती है, जिसमें कुछ स्थानीय शब्दों का भी मिश्रण मिलता है। यह त्यौहार पौष माह से प्रारंभ होता है और फाल्गुन माह में खड़ी होली के साथ समापन होता है।

यह मुख्य रूप से तीन प्रकारों में मनाई जाती है:-

1. बैठकी होली
2. खड़ी होली
3. महिला होली

1. बैठकी होली –

पौष के पहले रविवार से बैठकी होली शुरू होती है। इसके बाद बसंत पंचमी के दिन श्रृंगार रस प्रधान बैठकी होली चलती है। इसमें हारमोनियम, तबला, ढोलक और अन्य वाद्ययंत्रों के साथ शास्त्रीय रागों में होली गाई जाती है। इसमें उर्दू और हिंदी काव्यशास्त्र का भी प्रभाव देखने को मिलता है।

2. खड़ी होली –

फाल्गुन मास की एकादशी से खड़ी होली प्रारंभ होती है। इसमें ही रंगों का प्रयोग किया जाता है। एकादशी के दिन रंग पड़ता है।
कुमाऊं के विभिन्न क्षेत्रों में चीर बांधकर खड़ी होली का शुभारंभ किया जाता है। चीर कपड़ों के टुकड़ों और लकड़ी से मिलाकर बनाई जाती है और इसे प्रतीकात्मक होलिका माना जाता है।

होलिका दहन के दिन इस चीर को जलाया जाता है। इस दिन होलियार (होली गायक) मंदिरों में जाकर खड़ी होली (Khadi Holi) का शुभारंभ करते हैं। इसके बाद प्रतिदिन गाँव के अलग-अलग घरों में जाकर होली गाई जाती है।

चतुर्दशी के दिन सभी होलियार अपने-अपने गाँव की होली लेकर शिव मंदिर जाते हैं और वहाँ पर होली गाते हैं। प्रसिद्ध कुमाऊनी होली गीत “शिव के मन माहि बसे काशी” इस प्रकार है:

“शिव के मन माहि बसे काशी”
शिव के मन माहि बसे काशी -2
आधी काशी में बामन बनिया,
आधी काशी में सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी।

पूरा कुमाऊनी होली गीत यहाँ देखें 

3. महिला होली –

खड़ी होली के साथ-साथ महिला होली भी चलती रहती है। इसमें केवल महिलाएँ भाग लेती हैं और पारंपरिक गीतों के साथ नृत्य व ठिठोली करती हैं। महिलाओं की होली में श्रृंगार रस प्रधान गीतों का अधिक महत्व होता है।

होलिका दहन और छलड़ी –

होलिका दहन के दिन चीर दहन किया जाता है। इसे प्रतीकात्मक होलिका माना जाता है। होलिका दहन के अगले दिन छलड़ी मनाई जाती है। इस दिन गाँव के लोग एक-दूसरे के घर जाकर रंग खेलते हैं और होली आशीष गीत गाते हैं।

कुमाऊनी होली आशीष गीत :-

गावैं, खेलैं, देवैं असीस, हो हो हो लख रे
बरस दिवाली, बरसै फाग, हो हो हो लख रे।
जो नर जीवैं, खेलें फाग, हो हो हो लख रे।
आज को बसंत कृष्ण महाराज का घरा, हो हो हो लख रे।
श्री कृष्ण जीरो लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।

छलड़ी के दिन गाँव के सार्वजनिक स्थान पर होली का प्रसाद बनाया जाता है। इस दिन हलवा और अन्य पारंपरिक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं और पूरे गाँव में वितरित की जाती हैं।

उपसंहार –

होली भारत का सबसे बड़ा और प्रिय त्यौहार है। उत्तराखंड की कुमाउनी होली (Kumaoni Holi) इस पर्व का एक अनोखा रूप है, जो संगीतमय और सांस्कृतिक धरोहर से भरपूर है। वर्तमान समय में उत्तराखंड की कई सांस्कृतिक परंपराएँ लुप्त होने के कगार पर हैं, लेकिन कुमाऊनी होली का उत्साह अब भी बरकरार है। यह उत्सव प्रेम, सौहार्द्र और सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक है। उत्तराखंड की यह पारंपरिक कुमाउनी होली (Kumaoni Holi) संपूर्ण भारत में अपनी विशिष्टता और सांगीतिक शैली के लिए प्रसिद्ध है। इसे हमें संजोकर रखना चाहिए और आने वाली पीढ़ियों को इसकी समृद्ध विरासत से परिचित कराना चाहिए।

इन्हे भी पढ़े :

शिव के मन माहि बसे काशी कुमाऊनी होली गीत लिरिक्स।

कुमाऊनी होली गीत लिरिक्स | Top10 best Kumaoni holi song lyrics

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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