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खतड़वा पर्व, खतड़वा त्यौहार क्या है?

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खतड़वा पर्व

खतड़वा या खतडुवा पर्व उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में पशुओं की रक्षा पर्व के रूप में मनाया जाता है। स्थानीय जानकारी के अनुसार 2023 में खतडुवा पर्व  17 सिंतबर 2023 के दिन मनाया जाएगा। जैसा कि हम अपने पिछले लेख घी संक्रांति में बता चुके हैं कि ,उत्तराखंड में लगभग प्रत्येक संक्रान्ति (जिस दिन सूर्य भगवान राशी परिवर्तन करते हैं) के दिन त्यौहार मनाने की परम्परा है। स्थानीय भाषा मे इसे सग्यान भी कहते है। इसी क्रम में आश्विन मास की संक्रांति के दिन उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल के लोग खतडुवा लोक पर्व मनाते हैं। अश्विन संक्रांति को  कन्या संक्रांति भी कहते हैं , क्योंकि इस दिन भगवान सूर्यदेव सिंह राशि की यात्रा समाप्त कर कन्या राशि मे प्रवेश करते हैं।l

खतड़वा  त्यौहार क्या है?

खतड़वा पर्व  मुख्यतः शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक जाड़े से रक्षा की कामना तथा पशुओं की रोगों और ठंड से रक्षा की कामना के रूप में मनाया जाता है। कुछ लोक कथाओं के अनुसार खतड़वा पर्व को कुमाऊँ मंडल के लोग अपने सेनापति अपने राजा की विजय की खुशी में मनाते हैं। पहले जमाने मे संचार के साधन नही थे, उस समय ऊँची ऊँची चोटियों पर आग जला कर संदेश प्रसारित किए जाते थे। संयोगवश अश्विन संक्रांति किसी राजा की विजय हुई हो या ऊँची चोटियों पर आग जला के संदेश पहुचाया हो, और लोगो ने इसे खतड़वा त्यौहार के साथ जोड़ दिया।

जबकि किसी भी इतिहासकार ने यह स्पष्ट नही किया कि यह त्यौहार विजय के प्रतीक का त्यौहार है। और खतडूवा पर्व मनाने की विधियों और परम्परा से भी यह स्पष्ट होता है,कि खतरूवा , खतड़वा त्यौहार जाड़ो के आगमन का प्रतीक तथा जाड़ो से रक्षा के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।

खतड़वा त्यौहार को ,गैत्यार ,भैल्लो त्यौहार आदि नामों से भी मनाया जाता है।

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खतड़वा पर्व कैसे मनाते हैं?

खतरूवा पर्व  प्रत्येक वर्ष अश्विन संक्रांति को मनाया जाता है। अश्विन मास में पहाड़ों में खेती के काम की मार मार पड़ी रहती है। खतड़वा के दिन सुबह साफ सफाई, देलि और कमरों की लिपाई की जाती है। दिन में पूजा पाठ करके, पारम्परिक पहाड़ी व्यजंनों का आनन्द लेते हैं। क्योंकि अश्विन में काम ज्यादा होने के कारण , घर मे बड़े लोग काम मे बिजी रहते हैं। और खतड़वा के डंक ( डंडे जिनसे आग को पीटते हैं ) बनाने और सजाने की जिम्मेदारी घर के बच्चों की होती है।

घर मे जितने आदमी होते है ,उतने डंडे बनाये जाते हैं। उन डंडों को कांस की घास के साथ उसमे अलग अलग फूलों से सजाते हैं। खतरूवा के डंडों के लिए, कास की घास और गुलपांग के फूल जरूरी माने जाते हैं। महिलाये गाय के गोशाले को साफ करके वहाँ नरम नरम घास डालती है। और गायों को आशीष गीत गाकर खतड़ुवा की शुभकामनायें देती हैं। यह गीत निम्न प्रकार है –

औन्सो ल्यूला, बेटुलो ल्युला,
गरगिलो ल्यूलो,
गाड़ गधेरान बे ल्यूलो
त्यार गुसे बची रो ,तू बची रे।
एक गोरु बैटी गोठ भरी जो।
एक गुसैं  बटी भितर  भरी जो।

पशुओं का विशेष ध्यान रखा जाता है खतड़वा पर्व के दिन –

अर्थात , २ दूर दूर गधेरों पर्वतों से तेरे लिए अच्छी घास लाऊंगी ,बस तू सुखी सलामत रहे। तेरा मालिक सलामत रहे। एक गाय से पूरी गौशाला खुशहाल हो जाय। और तेरे मालिक का घर भी खुशहाल रहे। खतड़वा के दिन पहाड़ी ककड़ी का विशेष महत्व होता है। क्योंकि पहाड़ी ककड़ी खतडुवा पर्व ( Khatduwa festival) के दिन प्रसाद के रूप में एक दूसरे को देते हैं। इसके लिए ककड़ी को एक दो दिन पहले से ही चयनित कर लिया जाता है। खतडूवा मनाने वाले स्थान पर सुखी घास पूस इकट्ठा कर टीला सा बना दिया जाता है।

अब समय आता है, खतड़वा, भैलो मनाने का, चीड़ के लकड़ी की मशाल छिलुक जला कर ,खतड़वा के डंडों को गौशाले के अंदर से घुमा कर लाते हैं,और यह कामना की जाती है, कि आने वाली शीत ऋतु हमारे पशुओं के लिए अच्छी रहे और रोग दोषों से उनकी रक्षा हो। फिर उन डंडों को लेकर और साथ मे ककड़ी भी लेकर उस स्थान पर पर पहुँचा जाता है, जहाँ सुखी घास रखी होती है। उसके बाद सुखी घास में आग लगाकर ,उसे डंडों से पीटते हैं। और कुमाऊनी भाषा मे ये खतरुआ पर गीत गाये  जाते  हैं। khatarwa festival

खतड़वा के गीत :-

” भैलो खतड़वा भैलो।
गाई की जीत खतड़वा की हार।
खतड़वा नैहगो धारों धार।।
गाई बैठो स्यो। खतड़ु पड़ गो भ्यो।।”

फिर घर के सभी सदस्य खतडुवा,  की आग को पैरों से फेरते हैं। इसके लिए कहा जाता है। कि जो खतरूवा कि आग को कूद के ,या उसके ऊपर पैर घुमाकर फेरता है, उसे ठंड मौसम परेशान नही करता। खतड़वे कि आग में से कुछ आग घर को लाई जाती है। जिसके पीछे भी यही कामना होती है,की नकारात्मक शक्तियों का विनाश और सकारात्मकता का विकास । उसके बाद पहाड़ी ककड़ी काटी जाती है। थोड़ी आग में चढ़ा कर ,बाकी ककड़ी आपस मे प्रसाद के रूप में बांट कर खाई जाती है। सबसे विशेष प्रसाद में कटी हुई पहाड़ी ककड़ी के बीजों का खतड़वा के दिन तिलक किया जाता है। अर्थात खतडुवा पर्व पर ककड़ी के बीजों को माथे पर लगाने की परम्परा होती है। किसी किसी गावँ में तो , खतरूवा मनाने के लिए विशेष चोटी या धार होती है,जिसे खतडूवे धार भी कहते हैं।

अलग-अलग क्षेत्रों में अलग अलग तरीके से मनाते हैं ख़तरूवा –

कुमाऊँ के कुछ क्षेत्रों में , त्यौहार से 3-4 दिन पहले घास को मोड़ कर बूढ़ा और कांस के घास की बढ़िया बना के, गोबर के ढेर ने रख देते है। खतडूवा पर्व, की  शाम को बूढ़े को उखाड़ कर ,घर के चारों ओर घुमा कर फेंक देते हैं। और बुढ़िया को जला के ,उसकी राख से आपस मे तथा पशुओं को तिलक करते हैं। कुछ लोग इसे कुमाऊनी और गढ़वाली की आपसी वैमनस्यता के रूप में भी जोड़ते हैं। जिसके अनुसार खतडुवा पर्व कुमाऊँ के सेनापति गैंडा सिंह की जीत और और गढ़वाली सेनापति खतड़ की हार के रूप में मनाया जाता है।

मगर आज तक कोई भी इतिहासकार इसे स्पष्ट करने में असमर्थ ही रहा है। इस प्रकार के सेनापतियों के नामो की पुष्टि न होने और ऐसे किसी युद्ध की भी स्पष्ट रूप से पुष्टि न होने की वजह से त्यौहार मनाने का यह कारण अस्पष्ट लगता है।

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खतड़वा
खतड़वा की शुभकामनाएं फ़ोटो
निष्कर्ष

खतडूवा पर्व मनाने का तरीका और उसकी परम्पराओं से यह सिद्ध होता है,कि खतड़वा जाड़ो के आगमन तथा जाड़ों से स्वयं की और पशुओं की सुरक्षा की कामना का त्यौहार है। उत्तराखंड वासी अपनी विशेष परम्पराओं और अपने आपसी प्रेम, प्रकृति और बाल जीवन व स्वास्थ्य को समर्पित विशेष त्योहारों के लिए जग विख्यात हैं। आपसी वैमनस्य को त्यौहार के रूप में मनाने की हम कल्पना भी नही कर सकते हैं।

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