Thursday, April 17, 2025
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हई दशौर या हई दोहर, कुमाऊं के किसानों का त्यौहार

उत्तराखंड के निवासी छोटी छोटे आयोजनों पर और कार्यों के समापन पर खुशियां मनाने का अवसर नही छोड़ते हैं। ऐसा ही कार्य संपन्न होने की खुशी में मनाए जाने वाला त्यौहार है ,हई दशौर (कृषक दशहरा)। यह कुमाऊं के किसानों का स्थानीय  त्यौहार माना जाता है। यह त्यौहार सौर पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष मागशीष माह की दशमी तिथि के दिन मनाया जाता है। जिस प्रकार दशहरे के दिन हथियारों की पूजा होती है, ठीक उसी प्रकार हई दशौर (कृषक दशहरा) के दिन कृषि उपकरणों कि पूजा की जाती है। और विभिन्न प्रकार के पकवान बनाये जाते हैं।

यह त्योहार मुख्य रूप से नैनीताल के कुछ हिस्सों और अल्मोड़ा के हवलबाग ब्लॉक के आस पास और द्वाराहाट क्षेत्र में मनाया जाता है। पिथौरागढ़ जिले में इसे मैझाड़ कहते हैं। जिसका अर्थ होता है , बुवाई काम पूरा होने के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार।

हैया दोहर, या हई दोहर मनाने का मुख्य कारण

“हई दुहर” के त्यौहार के दिन विशेषकर  हल ,हल का जुआ और नाड़ा (नाड़ा पहले चमड़े से बनाया जाता था) बैल ,हालिया,और अनाज कूटने के पत्थर के अखलेश को पिठ्या अक्षत लगाकर सम्मान सहित पूजने और उनके परिश्रम को आदर सम्मान देने का का दिन था और है ।

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क्योंकि इन सबकी बदौलत ही सबके भकार अन्न से भरते थे और है । हिन्दू धर्म में हर वर्ग और वर्ण के लोगों यहां तक कि पशुओं और पत्थरों को भी देवता स्वरूप में पूजने का रिवाज है अब चाहे वह गाय हो वह मां समान है बैल नन्दी का स्वरूप है कुत्ता भैरव का स्वरूप है उल्लू लक्ष्मी का वाहन है। हम हिन्दू मनुष्य पशु पक्षी वृक्ष लता पहाड़ सब में इश्वर देखते हैं । इसीलिए हिन्दू धर्म सनातन है ।

हई दशोर (कृषक दशहरा) पर आधारित लोक कथा या किस्सा

जैसा कि हमने अपने लेख में उपरोक्त बताया है कि , यह त्यौहार कुमाऊं के किसानों का त्यौहार है। और यह त्यौहार मूलतः खेती का काम निपट जाने के बाद मनाया जाता है। और खेती के काम के निपट जाने की खुशी में मनाया जाता है। इस स्थानीय पर्व के पीछे एक लोककथा भी प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है।

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में ,भाद्रपद ,अश्विन और कार्तिक ये तीन माह सबसे ज्यादा काम वाले होते हैं। क्योंकि इस समय पहाड़ में कई प्रकार की फसलें तैयार होती हैं। और बरसात की वजह से घास भी खूब हुई रहती है। और उसे काट कर जाड़ो के लिए रखने की चुनोती भी होती है। इस समय ये समझ लीजिए कि खेती का कार्य अपने चरम पर होता है। अशोज लगना मतलब काम की मारमार।

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एक बार उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में एक रोचक घटना घटी ,जैसा कि हमको पता कि खेती में पहला कार्य महिला वर्ग का होता है, करते पुरुष भी हैं लेकिन ,फसल काटना, मड़ाई, और घास काटने जैसे कार्यों का नेतृत्व महिलाएं करती हैं। और उसके बाद पुरुषों का कार्य हल जोतना, बुवाई आदि होता है।

एक बार क्या हुवा, कि जैसे ही महिलाओं का खेती का काम निपटा तो महिलाओं ने नए अनाज का भगवान को भोग लगाकर ,खूब पूड़ी कचौड़ी , सब्जी खीर पकवान बनाकर खूब दवात उड़ाई और अपनी थकान मिटाई। कहते हैं कि इस दावत में महिलाओं ने पुरुषों को खास तवज्जो नही दी ,मतलब अपनी पसंद के पकवान बनाये , शिकार नही बनाया जो कि पुरुषों का प्रिय था, और सभी चीजें महिलाओं ने अपनी पसंद की बनाई।

इस कार्य पर कुमाऊं के पुरुषों को बुरा लगा और उन्होंने कहा , जिस दिन हमारा कार्य (हल जुताई और बुवाई पूरी हो जाएगी उस दिन हम भी पूरी पकवान बनाएंगे। हम भी दवात करेंगे और महिलाओं को कुछ नही देंगे।

अब पुरुषों का हल जोतने का कार्य मागशीष 10 गते को पुरुष अपने खेती के काम से मुक्त हुए। पूर्व निर्धारित  कार्यक्रम की वजह से उस दिन को कुमाऊं के पुरुषों ने त्यौहार के रूप में मनाया। ओखली को साफ चमक कर,उसपे ऐपण  निकाल कर सजाया।और कृषि यंत्रों को भी सजा कर उनकी पूजा की। और शिकार बनाया और साथ मे बेडू रोटी, पूड़ी सब्जी आदि बनाई और महिलाओं से भी बड़ी दावत उड़ाई।

कहते हैं उस दिन से कुमाऊं के किसानों के त्यौहार के रूप में इसका प्रचलन शुरू हुआ। हई का अर्थ होता है, हल जोतने वाला किसान और दशौर का अर्थ हुवा , दशहरा , मागशीष की की दशमी तिथि। अर्थात दशमी के दिन मनाए जाने वाले त्यौहार को हई दशौर कहते है।

हई दशौर
हई दशौर या हई दोहर

इसे भी पढ़िए: स्याल्दे बिख़ौति का मेला और कुमाऊं में बैशाखी को बुढ़ तयार के बारे में एक लेख

कैसे मनाते हैं, कुमाऊं के किसानों का त्यौहार, हई दशौर

हई दशौर (कृषक दशहरे) के दिन , इस त्योहार को बड़े उत्साह के साथ मनाने की तैयारियां सुबह से हो जाती हैं । यह त्यौहार कृषि प्रधान होने के कारण , इसे ओखली पर मनाया जाता है। सर्वप्रथम ओखली को साफ करके ,उसे ऐपण से सजाया जाता है। उसके साथ साथ ,सभी कृषि यंत्र, हल,मूसल पलटा आदि ओखली के पास रख कर उन्हें भी ऐपण से सजाते हैं।

इसके अतिरिक्त इन सबको एक विशेष लता से इन सबको सजाया जाता है। या वह बेल इन पर लटकाई जाती , जिसको स्थानीय भाषा घनाई की बेल कहते हैं। यह शुभ मानी जाती है। और यह इस त्योहार का महत्वपूर्ण हिस्सा है। बचपन मे हम इस घनाई की बेल ढूढने के लिए पूरे गाँव का चक्कर लगा देते थे। तत्पश्चात शाम को विभिन्न पकवान बनते हैं, जैसे पूड़ी सब्जी, बेडू रोटी ( दाल भरवा रोटी ) और शिकार बनाना जरूरी होता है।

शाम को घर के मुखिया किसान ,ओखली के पास रखे कृषि यंत्रों की पूजा करते हैं। ओखली में धान और कुछ पैसे रखे होते हैं,जिन्हें गरीब वर्ग के लोग सुबह ले जाते हैं। रात को पूजा के बाद ,सारा परिवार मिलकर स्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेते हैं।

हई दशौर (कृषक दशहरा) हमारे पुरखों द्वारा खुशी के पलों का आनंद लेने या खुशियां मनाने के लिए शुरू की गई एक अच्छी परम्परा है। जिसे हमे आदिकाल तक चलाये मान रखनी है। मगर एक विडम्बना बीच मे आ गई है, वह यह है कि इस त्यौहार की शुरुआत हमारे पुरखों ने खेती की थकान मिटाने के लिए की थी। मगर अब हम तो खेती करते ही नहीं।

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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