Friday, July 26, 2024
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गढ़वाली भाषा दिवस एवं गढ़वाली भाषा पर निबंध

Garhwali bhasha divas aur Garhwali bhasha par nibandh

गढ़वाली भाषा दिवस

प्रतिवर्ष 02 सितंबर के दिन गढ़वाली भाषा दिवस मनाया जाता है। यह दिन गढ़वाली भाषा को सम्मान दिलाने के लिए और 02 सिंतबर 1994 को मसूरी गोलीकांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों के सम्मान में मनाया जाता है। इस दिन को मनाने की पहल पर्वतीय राज्य मंच द्वारा 2018 में की गई थी तबसे प्रतिवर्ष 02 सिंतबर के दिन गढ़वाली भाषा दिवस मनाया जाता है।

गढ़वाली भाषा दिवस एवं गढ़वाली भाषा पर निबंध

गढ़वाली भाषा की विशेषताएं एवं गढ़वाली भाषा पर निबंध –

कई लोगो की अवधारणा है कि ,गढ़वाली एक भाषा नहीं  बोली है। कोई भी बोलीं जब साहित्यिक रूप ले लेती है, तो वह भाषा बन जाती है। गढ़वाली में साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पुस्तकें छप चुकी हैं। इतना ही नहीं , कई चलचित्र (फिल्मे ) भी बन चुकी हैं। और कई पुस्तकों का गढ़वाली में अनुवाद भी हो चुका है। बोली के आधार पर गढ़वाली को निम्न बोलियों में विभक्त किया जा सकता है।

  • श्रीनगरी बोली
  • नागपुरिया बोली
  • दसौल्यीया बोली
  • बधाणी बोली
  • राठी
  • मक्क
  • कुम्मैया
  • सलाणी
  • टिहरियलवी

गढ़वाली भाषा हिंदी की देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।  और आगे भी इसी लिपि में लिखी जाती रहेगी।  किन्तु  20 वी शताब्दी के आरम्भ में  लिखित प्रमाण में पाया गया कि ई  को oo  लिखा जाता था ,और र को न लिखते थे।  ऐसे ही ख को ष लिखते थे।

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20वी शताब्दी के आरम्भ तक बारह खड़ी पढ़ने का भी एक विचित्र तरीका था, बच्चे क का की को आदि न पढ़कर उसे कुछ इस तरह पढ़ते थे- बिजनकी -क, कुंदन्तु -का , बाजिमती -कि , देणे -की , उडताले -कु, बड़ेरे -कू , एकलग – के ,दोलग -कै ,लखनया – को ,दुलखनया-कौ ,श्री बिंदु -कं , दुवास बिंदु -कः।

गढ़वाली भाषा की विशेषताएं –

गढ़वाली  मे जो बहुरूपता दिखाई देती है, उसका प्रमुख कारण गढ़वाल की भौगोलिक स्थिति है।नदियाँ, पहाड़,दुर्गम घटिया , बर्फ से भरी चोटियां आदि के कारण ,एक स्थान से दूसरे स्थान के लिये सुलभ यातायात न होने के कारण या आवागमन सही ना होने के कारण, भाषा के उच्चारण में बहुरूपता आ गई, लेकिन यह बहुरूपता भाषा के उच्चारण में ही है। लिखने में बहुरूपता नागण्य है।

गढ़वाली भाषा मे देश की अन्य भाषाओं के शब्द मिलते हैं। उसका मुख्य कारण है, गढ़वाल के चार धामों की यात्रा के लिए देश के अनेक स्थानों से यात्री आते रहते हैं। इस कारण गढ़वाली लोगों का देश के अन्य लोगो से सम्पर्क हुवा, जिससे इस भाषा मे अन्य भाषाओं के शब्द मिलते हैं।

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शब्दगत विशेषतायें –

गढ़वाली भाषा अपने आप मे बहुत समृद्ध भाषा है, इसके अनेक शब्द जिनका पर्याय मिलना बहुत मुश्किल है। जीव जंतुओं और प्रकृति और आंचलिक व्यपार पर बने इन गढ़वाली शब्दों की अपनी अलग विशेषता हैं।

बरसात में बहने वाले जलप्रपात को “रौड” अथवा रौला कहा जाता है। नदी के किनारे रेत वाला भाग को ,बगड़ कहते हैं। साफ पानी के बड़े तालाब को ताल कहते हैं। छोटी नदियों को गदन, गदरु , गदरी, गदेरु कहते हैं।

हिंदी शब्द शरारत को गढ़वाली मे उतराडुयूँ ,बिगच्युं ,चबटालू, थीणक्यूं आदि कई शब्द है। खुजली के गढ़वाली में अलग अलग शब्द हैं, जैसे रोग वाली खुजली को खाज्जी कहते हैं। यदि खटमल,पिस्सू,या किसी कीट ने काट लिया तो उसे कनयै कहते हैं। और अरबी से लगने वाली खुजली को क्योंकाली लगना कहते हैं। ये सब अनेकार्थी शब्द हैं। कहने का अभिप्राय यह है,कि हिंदी में एक शब्द है,खुजली के लिए एक शब्द के गढ़वाली  ,में अलग प्रकार की खुजली के लिए अलग अलग शब्द हैं।

अबे, अगेलो ,औल्याण,कलकली,करखुला ,खुद,गुठयार,गोठ, चड़म, घाण ,छमोट, झणी, झड़, टुक,ठुंगार,डांडा, तातो आदि ऐसे अनगिनत गढ़वाली शब्द हैं ,जिनका पर्याय हिंदी या अंग्रेजी भाषा मे नही हैं।

गढ़वाली भाषा मे धातुओं की स्थिति और उनकी व्यवहारिक अभिव्यक्ति को बोधगम्य बना देती है। जैसे – सिंगयाणु – सिंग मारने का उपक्रम , क्विनाणु – कोहनी मार कर एक तरफ धकेलना , सबलयाणु – संबल मार कर पत्थर बाहर निकालना। ऐसी अनेक धातु शब्द ,गढ़वाली भाषा को समृद्ध बनांते हैं।

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अर्थगत विशेषतायें –

यहाँ के भौगोलिक तथा सामाजिक परिवेश से संबंधित या असंख्य पशु पक्षियों की आवाज और प्रकृति को चित्रित करने व उनके गुणों को अभिव्यक्त करने वाले शब्दों का समुच्चय बेजोड़ हैं। जैसे गंध को विभिन्न क्रमिक भेदों में दर्शाने वाले गढ़वाली शब्द उसके श्रंगार हैं।

जैसे – बास – सामान्य गंध , ‘कुतराण’ -सूती कपड़े जलने की गंध , किकरयाण – ऊनि कपड़े जलने की गंध ,कुरल्याण – ऊनी सूती कपड़ों की मिश्रित गंध , किरयाण – बाल जलने की गंध , बसाण – बासी खाने की गंध, ख़िरकयाण – मिर्च जलने की गंध , तैलाण – तेल जलने की गंध , अमाण – खट्टे की गंध ,चिलख्याण  – पुराने घी की गंध । आदि शब्दों में अनुभवी व विलक्षण अर्थ व्यंजकता है।

इसी तरह घटना के प्रभाव में तीव्रता एवं गहराई लाने के लिए ध्वन्यात्मक या गतियात्मक शब्द हैं। जैसे भकोराभकोर – जल्दी जल्दी बिना चबाए खाना, छणमणात – चूड़ियों का आपस मे टकराना , सुट्ट – जल्दी निगल जाना। इसी प्रकार के कई शब्द है, जिससे स्थिति की गति और गहराई का अर्थ समझने को मिलता है।

संदर्भ – मित्रों उपरोक्त लेख का संदर्भ, डॉक्टर अचलानंद जखमोला की किताब , कोष विधा एवं अन्य शोध विधा से लिया गया है। यदि लेख में कोई त्रुटि या सुझाव देना हो तो, हमारे फेसबुक पेज देवभूमी दर्शन पर संदेश भेज कर अवगत करा सकते हैं।

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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