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उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं?

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उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं? इस बात को इसमें निहित कई तथ्य हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि, हमारी देवभूमि में कई देवी देवताओं की लीला स्थली और क्रीड़ा स्थली रही है। अनेक ऋषियों, मुनियों, साधु, संतों की तपस्थली और जपस्थली से इन महान दिव्य आत्माओं की चरण रज से यह भूमि और भी पावन पवित्र होकर कण-कण भी इसका दिव्यमय होकर के इस भूमि को भी और इस भूमि के उन अनगिनत सूक्ष्म रजकणी का स्पर्श ही हमारा मन आनंद और रोमांच से रोमांचित हो जाता है, तभी तो यहां दृश्य और अदृश्य रूप से आज भी वे महान आत्माएं यहां पर जप, तप और योग, साधना के लिए इस देवभूमि को सहज मानते हैं ।

गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ तथा बद्रीनाथ यहां ऐसे परम तीर्थ हैं, जहां श्रद्धालू प्रतिवर्ष यहां का महात्म समझकर और आस्था को लिए यहां आते और जाते रहते हैं, हेमकुंड साहब हो या फूलों की घाटी इनकी भी अलग ही महिमा किसी से छुपी नहीं  है, हरिद्वार गंगा नदी के किनारे बसी हुई है और इस तीर्थनगरी में अमृत की कुछ बूंदों के गिरने से इसका प्रभाव देखते हुए यहां छः साल बाद अर्धकुंभ और बारह साल बाद कुंभ का मेला लगता है।

और तो और यहां के पारंपरिक वाद्य यंत्रों में भी जैसे एक दिव्य सी ऊर्जा भरी होती है, जहां ढोल दमाऊं की थाप पर देवी देवता भी पशवा पर अवतरित हो जाते हैं, कई बार चावलों की हरियाली हाथों पर उगा देते हैं, तो कभी अपने भक्तों की समस्याओं का समाधान करने के लिए उपाय सुझाना आदि, और यदि हमें अपने इष्ट में पूर्ण श्रद्धा है तो हमारी समस्याएं तब स्वतः ही समाप्त हो जाती है, और कहीं न कहीं ये सारी बातें यह इंगित करती हैं, कि ईश्वर का अस्तित्व हर जगह है ही है, तो तब हम आस्तिकता की ओर बढ़कर सत्कर्मों में निरत होकर के एक सुखी जीवन का रहस्य जानकर उसको बड़ी ही सहजता के साथ प्राप्त कर सकते हैं।

उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं?

ढोल दमाऊँ की थाप प्रतिवर्ष हमारे उत्तराखंड में पांडव वार्ता और मां भवानी के साथ साथ अन्य देवी देवताओं का आह्वान किया जाता है और उनकी पूजा आदि करके उनको संतुष्ट कर प्रसन्न किया जाता है। भगवान गौरी शंकर का स्थाई निवास कैलाश मानसरोवर भी यहीं है, यहां शून्य से भी नीचे जिन हिमालई क्षेत्रों में तापमान रहता है, वहां बहुमूल्य और बेशकीमती तथा हमारे इस जीवन को भी नवजीवन देने वाली औषधियां और पादप भी पाए जाते हैं।

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भारतवर्ष की उत्तर की ओर विस्तृत यह हिमालई क्षेत्र एक सीमारेखा के जैसे दुश्मनों से भी हमारी रक्षा करता है। इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर जो वर्तमान में देहली कहा जाता है, या हरियाणा का वह कुरुक्षेत्र का युद्ध, इसके अतिरिक्त पंडोवो ने हमारी इस देवभूमि उत्तराखंड में ही अधिकतर अपनी लीलाओं का संवरण किया, जैसे द्रोण नगरी वर्तमान में देहरादून में गुरु द्रोणाचार्य द्वारा शिक्षा प्राप्त करना और अपने अज्ञातवास के समय अपनी इस देवभूमि उत्तराखंड में ही व्यतीत करना और सबसे आखिर में अपने जीवन के अंतिम समय में स्वर्गारोहिणी के दौरान स्वर्ग की ओर प्रस्थान करना आदि  प्रमुख घटनाओं को अंजाम इसी देवभूमि में उनके द्वारा दिया गया। कौरव और पांडवों की गाथाओं का बखान जागर आदि के माध्यम से इसी देवभूमि उत्तराखंड में ही इसी कारणवश होता है।

लेखक के बारे में इस लेख को टिहरी गढ़वाल निवासी श्री प्रदीप बिजलवान बिलोचन जी ने लिखा है। श्री प्रदीप विलोचन जी शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। श्री प्रदीप जी के लेख व गढ़वाली कवितायेँ नियमित रूप  देवभूमि दर्शन पोर्टल में संकलित होते रहते हैं।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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