उत्तराखंड की गोद में बसा एक अलौकिक अंचल — दानपुर, न केवल हिमालय की अद्भुत सुंदरता से सजा हुआ है, बल्कि यह इतिहास, लोकमान्यताओं, और सांस्कृतिक विरासत का भी जीवंत उदाहरण है। यह क्षेत्र वर्तमान में बागेश्वर ज़िले में आता है और अपने भीतर पिंडारी ग्लेशियर से लेकर कव्वालेख जैसी दुर्लभ मान्यताओं तक, कई रहस्यमयी और रोचक तथ्य समेटे हुए है।
दानपुर की सीमाएँ जोहार, गढ़वाल, पाली, बारामंडल और गंगोली जैसे क्षेत्रों से मिलती हैं। इसके उत्तर में बर्फ से ढकी पहाड़ियाँ और दक्षिण में ऊँचे पर्वत शिखर हैं। यहाँ के प्रमुख हिमालयी शिखरों में नंदाकोट, नंदाखाट, नंदादेवी, सुन्दरढुंगा और वणकटिया प्रमुख हैं। यह इलाका न केवल अपनी भौगोलिक बनावट से अनूठा है, बल्कि इसकी लोकसंस्कृति, पशुपालन, देव परंपराएं, पौराणिक मान्यताएं, और जीवनशैली भी इसे विशिष्ट बनाती है।
दानपुर के चारों ओर वनाच्छादित क्षेत्र हैं, जो भोजपत्र, रिंगाल, देवदार, बुरांश, खरसू और थुन के वनों से घिरे हैं। यह क्षेत्र जैव विविधता में भी समृद्ध है। यहाँ हिमालयी पक्षी जैसे डफी, लुंगा और मुन्याल पाए जाते हैं, जिन्हें हिमालय का मोर भी कहा जाता है। इनके अतिरिक्त यहां के पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले जानवरों में भालू, हिरन, लोमड़ी, बाघ और भेड़िए शामिल हैं।
दानपुर का शीतकालीन पशुपालन चक्र भी अत्यंत दिलचस्प है। जब गर्मियों में हिमनदों की बर्फ पिघलने लगती है, तो यहां के निवासी अपने पशुओं को लेकर ऊँचाई पर स्थित बुग्यालों की ओर प्रस्थान करते हैं। ये बुग्याल — जैसे छिपलाकोट, नंदा बिनायक, बधियाकोट, राठीधार, सौरी, और बधाण — चरागाह के रूप में उपयोग किए जाते हैं। वहाँ घास की भरमार होती है और जल स्रोतों की भी कोई कमी नहीं होती।
दानपुर के जंगलों में औषधीय महत्व की कई दुर्लभ वनस्पतियाँ पाई जाती हैं, जैसे अतीस, डो तू, भूतकेस, सची, टांटरा, पाथरचट्टा आदि। यहाँ के कंदराओं में मधुमक्खियाँ शहद के छत्ते बनाती हैं। वहां का शुद्ध शहद और घी दानपुर की विशेष पहचान है।
दानपुर की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में देवी-देवताओं की बड़ी भूमिका है। यहाँ की कुलदेवी नंदादेवी मानी जाती हैं, जो मूलतः पिंडारी ग्लेशियर के आसपास के क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। साथ ही, मूलनारायण देवता जिन्हें स्थानीय लोग मुलेणा कहते हैं, भी अत्यंत पूज्य माने जाते हैं।
दानपुर की संस्कृति में ‘दान’ शब्द की गहरी छाप है। एक मान्यता के अनुसार, यहाँ के राजाओं ने धार्मिक पुण्य की भावना से इस क्षेत्र को ‘दान’ में दे दिया था, जिससे इसका नाम दानपुर पड़ा। दूसरी मान्यता कहती है कि पांडवों ने अपने वनवास काल में इस क्षेत्र में आकर तपस्या की थी और यहीं से आगे कैलाश की ओर प्रस्थान किया। यहाँ के दाणों को आज भी पांडवों का वंशज माना जाता है।
दानपुर कोट नामक ऐतिहासिक स्थान आज केवल एक टीला भर रह गया है, परंतु वहाँ कभी एक भव्य किला हुआ करता था। यह किला शुमगढ़ नामक स्थान के निकट था, जिसे कत्यूरियों के समय में स्थापित किया गया था। इतिहासकार बद्रीदत्त पाण्डेय के अनुसार, इस क्षेत्र की भूमि अत्यंत उपजाऊ और सुसंस्कृत थी। शुमगढ़ का शासक कत्युरी नरेश कल्याणचंद को कर चुकाया करता था।
दानपुर में कई लोक मेले और धार्मिक आयोजन भी होते हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:
- भद्रतुंगा का मेला — यह मेला वैशाख पूर्णिमा को सरयू के उद्गम पर लगता है।
- बधियाकोट का मेला — यह नंदादेवी के आगमन का प्रतीक है, जिसे स्थानीय लोग विशेष उल्लास से मनाते हैं।
अब बात करते हैं उस रहस्यमयी मान्यता की जो दानपुर को और भी विशेष बनाती है — कव्वालेख। यह एक ऊँची चोटी है जो नंदादेवी पर्वत के पश्चिम में स्थित है। दानपुर वासियों की मान्यता है कि जब कौवा (काग) बूढ़ा हो जाता है और उसकी मृत्यु का समय निकट आता है, तो वह उड़कर इस चोटी की ओर चला आता है। यहां आकर वह प्राण त्याग देता है और उसकी आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। इसीलिए इसे कव्वालेख कहा जाता है — अर्थात ‘कौवों का मोक्षस्थल’। यह मान्यता स्थानीय संस्कृति में इतनी गहराई से रची-बसी है कि आज भी लोग इसे पवित्र स्थल मानते हैं।
दानपुर की यही विविधता, उसकी संस्कृति, रहस्य और प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण जीवनशैली, इसे उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों से अलग बनाती है। यह क्षेत्र केवल भौगोलिक रूप से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, पौराणिक और आध्यात्मिक रूप से भी एक धरोहर है।
इन्हे भी पढ़े :-
- लोहाखाम मंदिर : उत्तराखंड की आध्यात्मिक विरासत और बुद्ध पूर्णिमा का पवित्र उत्सव।
- मुनस्यारी हिल स्टेशन के दार्शनिक स्थल ,पुराना नाम और प्रसिद्ध भोजन
Table of Contents
हमारे समुदाय से जुड़ें –
उत्तराखंड की संस्कृति, परंपराओं और मेलों के बारे में नवीनतम अपडेट और जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ें! हमारे व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।