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परिचय –
दण्डेश्वर मंदिर, जिसे दण्डेश्वर या डंडेश्वर के नाम से भी जाना जाता है, उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद में स्थित एक प्राचीन और पवित्र शिवालय है। यह मंदिर जागेश्वर मंदिर समूह से लगभग 2 किलोमीटर पश्चिम में, अल्मोड़ा शहर से 35 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में, जटागंगा और दूधगंगा नदियों के संगम के ऊपर एक पहाड़ी पर, घने देवदार के जंगल के बीच स्थित है। यह मंदिर वृद्धजागेश्वर मंदिर से मात्र 1 किलोमीटर की दूरी पर है और इसके आसपास 8-9 छोटे-छोटे देवालय भी हैं, जो धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं।
दण्डेश्वर मंदिर का पौराणिक महत्व-
पौराणिक कथाओं के अनुसार, दण्डेश्वर मंदिर का स्थान सप्तर्षियों की तपस्थली रहा है। मान्यता है कि सप्तर्षियों ने भगवान शंकर पर उनकी पत्नियों के सतीत्व भंग करने की मिथ्या आशंका के कारण लिंग पतन का शाप दिया था। इस शाप के परिणामस्वरूप खण्डित लिंग का प्रथम खण्ड शिला स्वरूपा शक्ति के रूप में यहीं स्थापित हुआ, जो आज भी मंदिर के गर्भगृह में पूजा जाता है। इस कारण दण्डेश्वर मंदिर को जागेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रवेशद्वार भी कहा जाता है।
मंदिर परिसर में दूधगंगा का उद्गम स्थल ‘ब्रह्मकुंड’ भी स्थित है, जो इस स्थान की पवित्रता को और बढ़ाता है। त्रिजुगीनारायण की अखण्ड धूनी की तरह यहाँ भी एक अखण्ड ज्योति निरंतर जलती रहती है, जो भक्तों के लिए आध्यात्मिक शांति का प्रतीक है।
स्थापत्य और विशेषताएँ –
दण्डेश्वर मंदिर रेखा और वलभी शैली में निर्मित है। यद्यपि यह मंदिर आकार में छोटा है, फिर भी इसकी स्थापत्य कला महामृत्युंजय मंदिर के समान प्रभावशाली है। मंदिर का गर्भगृह वह स्थान है जहाँ खण्डित लिंग शिला स्वरूप में स्थापित है, जिसे भक्त विशेष श्रद्धा के साथ पूजते हैं। मंदिर परिसर में पहले पौणराजा की 112 किलोग्राम वजनी और 4 फीट ऊँची कांस्य प्रतिमा स्थापित थी, जो नवंबर 1973 में चोरी हो गई थी। यह प्रतिमा 1975 में दिल्ली में बरामद की गई थी, जो इस मंदिर के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व –
दण्डेश्वर मंदिर का धार्मिक महत्व इसलिए भी है क्योंकि माना जाता है कि जागेश्वर के शिवलिंग की स्थापना मूलतः यहीं हुई थी। मान्यता है कि भगवान् शिव के लिंग रूप में पूजन सर्वप्रथम यहीं से शुरू हुवा था। यह मंदिर न केवल स्थानीय भक्तों के लिए, बल्कि देश भर से आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। श्रावण मास, शिवरात्रि, वैसाखी, और कार्तिकी पूर्णिमा जैसे अवसरों पर यहाँ श्रद्धालुओं का विशेष जमावड़ा होता है। इन अवसरों पर मंदिर परिसर भक्ति और उत्साह से भरा रहता है।
प्राकृतिक सौंदर्य –
दण्डेश्वर मंदिर घने देवदार के जंगल और जटागंगा व दूधगंगा के संगम के निकट होने के कारण प्राकृतिक सौंदर्य का अनुपम संगम प्रस्तुत करता है। यहाँ का शांत और रमणीय वातावरण भक्तों और पर्यटकों को आध्यात्मिक शांति के साथ-साथ प्रकृति के करीब लाता है। ब्रह्मकुंड और आसपास के छोटे-छोटे देवालय इस स्थान को और भी विशेष बनाते हैं।
निष्कर्ष –
दण्डेश्वर मंदिर न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि यह उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का प्रतीक भी है। इसका पौराणिक महत्व, स्थापत्य कला, और प्राकृतिक सौंदर्य इसे एक अवश्य देखने योग्य स्थान बनाते हैं। यह मंदिर उन सभी के लिए एक आदर्श गंतव्य है जो आध्यात्मिक शांति और प्राकृतिक सौंदर्य की तलाश में हैं।
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