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बूढ़ी दिवाली 2025 में पर्व की तिथि –
हिमाचल और उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र में वर्ष 2025 की बूढ़ी दिवाली का पर्वोत्सव 20 नवंबर 2025 से प्रारंभ होगा और 23 नवंबर तक चलेगा साथ ही मार्गशीष बग्वाल भी ऐसी समय मनाई जाएगी। और उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली ( इगास ) 01 नवंबर 2025 को मनाया गया है।
हिमालयी पर्वों की अनोखी दीपावली परंपरा और तिथि-
भारत के पर्व-परंपराओं में जहां मैदानी क्षेत्रों में कार्तिक अमावस्या को दीपावली धूमधाम से मनाई जाती है, वहीं हिमालयी अंचलों में इसका एक अनोखा, स्थानीय स्वरूप मार्गशीर्ष अमावस्या को देखने को मिलता है। यह पर्वोत्सव उत्तराखंड और हिमाचल के पर्वतीय अंचलों का अपना विशिष्ट त्योहार है, जिसे कई नामों से जाना जाता है — कहीं “पुरानी दिवाली”, कहीं “बूढ़ी दीवाली”, कहीं “पहाड़ी दीवाली” और कहीं “कोलेरी दीवाली”।
पर्व की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि-
बूढ़ी दिवाली, दीपावली से लगभग एक माह बाद मनाया जाता है। उत्तराखंड के टिहरी, उत्तरकाशी, रंवाई-जौनपुर, टकनौर, बूढ़ा केदार आदि क्षेत्रों तथा जौनसार-बावर में इसे “बग्वाली” या “बूढ़ी दीआली” कहा जाता है। कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में पारंपरिक बूढ़ी दिवाली को अब मैदानी दीपावली के साथ मिलाकर “बगवाल” कहा जाने लगा है। हालांकि इसका मूल स्वरूप विशुद्ध रूप से हिमालयी संस्कृति और स्थानीय ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा है।
इस पर्व का मूल इतिहास स्पष्ट नहीं है। जनश्रुतियों के अनुसार, इसे कभी पांडवों की विजय, तो कभी किसी वीर भड़ या माधोसिंह भंडारी जैसे योद्धा के विजयोपरांत लौटने की स्मृति के रूप में भी मनाया जाता रहा है।
पांच दिवसों का विस्तृत उत्सव
यह पर्व पारंपरिक रूप से पांच दिनों तक चलता है, जिसमें प्रत्येक दिन का अपना विशेष महत्व है।
1. असक्या-
पहले दिन को असक्या कहा जाता है। इस दिन “अश्का” नामक स्थानीय पकवान (मक्की व झंगोरे से बना, दही के साथ सेवन किया जाने वाला व्यंजन) बनाया जाता है। गाँव के बाजगी वाद्य बजाकर प्रत्येक घर को शुभकामनाएँ देते हैं।
2. पकौड़िया-
दूसरे दिन घरों में उड़द दाल की पकौड़ियाँ (बड़े) बनती हैं। लोग नये वस्त्र पहनते हैं और सामूहिक रूप से जंगल से लकड़ी लाते हैं। फिर ऊँचे स्थान से अखरोट और सूखे फल (जिन्हें “बिरूड़ी” कहा जाता है) फेंके जाते हैं, जिसे शुभता और आनंद का प्रतीक माना जाता है।
3. बराज-
तीसरे दिन का नाम बराज है, जो राजा बलि की स्मृति से जुड़ा होता है। बाजगी घर-घर बधाई बजाते हैं, स्त्रियाँ मंगलगीत गाती हैं और हरियाली बांटती हैं। इस दिन विवाहिता बेटियों को “बांटा” (पैतृक संपत्ति या उपहार) देने की परंपरा है। शाम को कई गाँवों में भांड — एक विशाल रस्साकसी का आयोजन — किया जाता है, जिसे समुद्रमंथन या प्राचीन नाग-कथा से जोड़ा जाता है। रस्साकसी के बाद रासौ नृत्य होता है, और लोग रस्से के टुकड़े घरों में शुभ प्रतीक के रूप में रखते हैं।
4. बूड़ा-खुड़ा-
यह दिन मेहमानों के स्वागत और सामूहिक भोज का होता है। बाजगियों और हरिजनों को “त्यार” दिया जाता है, तथा रातभर गीत-संगीत और लोकनृत्य चलते हैं।
5. बुड़ियात-
अंतिम दिन पूरे गाँव का सामूहिक उत्सव “बुड़ियात” मनाया जाता है। पुराने समय में यह उत्सव बारह दिन तक चलता था, पर अब यह पाँच दिनों तक सीमित रह गया है।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अर्थ
बूढ़ी दिवाली केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सामूहिकता, लोककलाओं और विरासत को सहेजने का प्रतीक है। इस अवसर पर लोग अपनी सांस्कृतिक एकता का प्रदर्शन करते हैं। पर्वों के इन रूपों में उत्तराखंड और हिमाचल की सामुदायिक परंपराओं, लोकवाद्य, गीत-संगीत और सामाजिक सौहार्द का सुंदर मिश्रण दिखाई देता है।
बूढ़ी दिवाली की कथा: गढ़वाल की वीरगाथा और लोकस्मृति-
गढ़वाल के उत्तरकाशी जनपद में मार्गशीर्ष मास की अमावस्या को मनाई जाने वाली बूढ़ी दिवाली से एक प्रचलित जनश्रुति जुड़ी है। माना जाता है कि 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जोहार (गरेती) क्षेत्र के वीर सेनानी दोलपा पांगती के दो पुत्र, मादू और भादू, ने गढ़वाल राज्य की सीमाओं के समीप मल्ला टकनौर क्षेत्र के आठ गाँवों को हिमाचल प्रदेश की रियासत के कब्जे से मुक्त कराया। उनके इस वीरतापूर्ण कार्य से न केवल उनका क्षेत्र में सम्मान अत्यधिक बढ़ा, बल्कि वे स्थानीय लोककथाओं का हिस्सा भी बन गए।
कहा जाता है कि एक वर्ष भीषण हिमपात के कारण वे दीपावली के समय अपने घर जोहार नहीं लौट सके। दीपों का पर्व न मना पाने से वे अत्यंत दुखी हुए। तब गढ़वाल के राजा ने उन्हें प्रसन्न करने के लिए राज्यभर में मार्गशीर्ष अमावस्या को दीपावली मनाने का आदेश जारी किया। तभी से इस क्षेत्र में कार्तिक की बजाय मार्गशीर्ष अमावस्या को दीपों का यह पर्व मनाया जाने लगा। समय के साथ यह परंपरा ‘बग्वाल’ या ‘बूढ़ी दिवाली’ के रूप में प्रसिद्ध हुई और आज भी उसी श्रद्धा एवं उल्लास के साथ मनाई जाती है।
संदर्भ (article reference ) –
उत्तराखंड ज्ञानकोश पुस्तक , प्रो. डी.डी. शर्मा
इन्हे पढ़े : मंगसीर बग्वाल उत्तराखंड की बूढ़ी दीवाली पर निबंध
