Home इतिहास बिरखम या बिरखम ढुङ्ग, उत्तराखंड के पाषाणी प्रतीक

बिरखम या बिरखम ढुङ्ग, उत्तराखंड के पाषाणी प्रतीक

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देश, धर्म, जाती के लिए प्राण न्योछावर करने वाले वीरों की यादों को संजोए रखने और उनके नाम को अमर करने के लिए, उनकी याद में स्मारक, मूर्ति या प्रतीक बनाने की परंपरा हर देश हर समाज मे रही है। उत्तर भारत मे इन्हें वीर स्तंभ, कीर्ति स्तम्भ आदी कहा जाता है। इसी प्रकार के वीर स्तम्भ उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों खासकर कुमाऊं मंडल में पाए जाते हैं। जिन्हें स्थानीय भाषा मे बिरखम या बिरखमु ढुङ्ग के नाम से जानते हैं।

बिरखम उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में पाए जाने वे पाषाणी प्रतीक है, जो सामान्यतः 4 से 5 फ़ीट ऊंचे और अनेक प्रकार की आकृतियों से अलंकृत होते हैं। इसका सामान्यतः शाब्दिक अर्थ होता है बीर स्तम्भ। मगर कई विद्वानों का मत है, कि बिरखम वृहत स्तम्भ का परिवतिर्त रूप है। जिसका संबंध कत्यूरी राजाओं द्वरा आयोजित यज्ञस्थलों पर स्थापित किये जाने वाले यज्ञ स्तम्भों से है। इसके समर्थन में विद्वानों का कहना है कि,बागेश्वर शिलालेख में कत्यूरी शाशक निम्ब्रत के बारे में कहा गया है, कि “बहुत से यज्ञों के कारण उनकी कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी।”

बिरखमु ढुङ्ग के बारे में पद्मश्री पुरातत्त्वविद ड़ा यशोधर मठपाल जी का कहना है, कि बिरखम अपने देश ,जाती धर्म अथवा अपने राजा के लिए या किसी महान कार्य के लिए अपने प्राण अर्पण करने वाले या युद्ध मे शाहिद सैनिक का पाषाणी स्मारक है। ये वीरस्तम्भ वीरों के परिवार जनों द्वरा  मुख्यतः बनाये जाते थे। जिनके लिए समाज या राज्य से सहायता मिलती थी।

जो योद्धा जीत कर लौटता था। उसके लिए जीते जी वीर स्तम्भ बनाया जाता था। जो युद्ध मे शहीद हो जाता था, उसका मरत्युउपरांत बीर स्तम्भ बनाया जाता था। वीर शहीद के परिवार वालों को भूमि कर ,कर में रियासते, राजस्व का हिस्सा, आर्थिक अनुदान व पदवी देकर सम्मानित किया जाता था।

बिरखम
फोटो साभार सोशल मीडिया

उत्तराखंड में भी बिरखम कई आकर प्रकार के मिलते हैं। भाबर क्षेत्र में लातिन शैली, और मध्य हिमालयी क्षेत्रों में बिरखमु  खम्बे के आकार के या शिलापट्टों, ऊपर से वर्गाकार, नीचे अश्वरोही, या पैदल सैनिकों की आकृतियों वाले स्तम्भों के रूप में मिलते हैं।इन विरखमो को आसानी से जमीन में गाड़ कर खड़ा किया जाता था। कुमाऊं के चंपावत जिले में अधिक विरखम पाए जाते हैं। इसके अलावा पद्मश्री ड़ा मठपाल जी लिखते हैं, द्वाराहाट से 19 किलोमीटर पक्षिम में स्थित सुरेईखेत के प्राइमरी स्कूल के प्रांगण में 2 विरखम हैं।

जो दूर से छोटे छोटे कत्यूरी मंदिर जैसे दिखते हैं। इसी प्रकार बेतालघाट के अमेलगांव में देवी मंदिर के पूर्वद्वार पर 4 विरखम गाड़े गए हैं। ये जमीन के ऊपर लगभग 2 मीटर ऊंचे हैं । इनकी कुल लंबाई 2.5 तक हो सकती है। इनके निचले चौकोर हिस्से मैं सैनिकों कलाकृतियां उकेरी गई हैं। ऊपरी भाग शंक्वाकार है, जिसमे फूल और पिपलनूमा वृक्ष उकेरे गए हैं।

इन वीर स्तम्भों के अलावा कुमाऊं मंडल में कई और बिरखमु हैं। कइयों को डॉ मठपाल जी ने अपने लोक संग्रहालय में संग्रहित भी किया है।इसके अलावा अल्मोड़ा जिले के सोमेश्वर विधानसभा क्षेत्र में स्थित गावँ बगुना के वन क्षेत्र में भी एक बिरखम है। जिसे स्थानीय भाषा मे बिरखमी ढुंगा कहा जाता है। हालांकि इसका ऊपरी भाग क्षतिग्रस्त किया गया है। इसका सिर तोड़ने के पीछे यह जानकारी है, कि यह विरखम , एक मानवाकृति रूपी ऊंची मूर्ति थी।

कहते हैं कि इस विरखम की नजर के सामने जो गावँ पड़ता है, उस गांव के लोगो को शिकायत थी कि इस विरखम कि नजर का अपशुन हमारे गावँ को लग रहा है। इसकी नजरों की वजह से गावँ में परेशानियां बढ़ रही हैं। इसलिए उस गांव के लोग एक रात चुपचाप आकर उस बिरखमु के सिर के भाग को क्षतिग्रस्त कर गए।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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