Friday, October 4, 2024
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उत्तराखंड पलायन के दर्द को उकेरती यह करुण कहानी – पलायन की व्यथा का अंत

एक गांव जिसका नाम था बाणसोलि वहां बचपन के दो परमप्रिय मित्र अपनी मित्रमंडली में जगतू और दीपक जो लगभग 12-14 वर्ष की आयु के थे उनकी दोस्ती की मिशाल बाणसोली गांव तो क्या दूर दूर तक के गावों में प्रसिद्ध थी।

दोनों के ह्रदय में परोपकार की भावना थी लेकिन अंतर सिर्फ इतना था कि जगतू एक गरीब और दीपक अमीर परिवार से ताल्लुक रखता था इसलिए वे अपनी ओर से दूसरों की मदद भरपूर करते थे, जगतू तन और मन से अपनी ओर से हर संभव मदद निर्बल और असहायों की और दीपक धन और मन से पात्र लोगों की मदद करते थे, और इस समाजसेवी काम को उन्होंने अपना  शौक  बना लिया था जिससे उनको काफी सुकून मिलता था।  और तब उनके ह्रदय  में उनकी समाजसेवा की प्रवृत्ति बलवती हो जाती थी।

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शनै शनै दोनो बड़े होने लगे लेकिन एक दिन ऐसा आया जब कक्षा आठवीं तक पढ़ने के बाद दोनों को एक दूसरे से बिछड़ना पड़ा जिसका मुख्य कारण था कि दीपक के पिताजी का देहरादून शहर में, और मजबूरी ट्रांसफर हो गया। और में दीपक को भी की एक अच्छी उच्च शिक्षा हासिल करने के कारण और परिवार के साथ वहीं शिफ्ट होने की वजह से गांव छोड़कर जाना पड़ा।

भले ही दीपक किसी तरीके से शहर में अपने को अनुकूल कुछ समय बाद कर लेता लेकिन उसके पिता श्यामलाल अपनी जमीन अपने गांव से दिल की गहराइयों से जुड़े हुए थे। और इस बात का उन्हें अत्यंत दुःख था गांव में लोग एक दूसरे के सुख दुःख में काम आने वाले थे, जबकि उनके अनुसार शहर का हवा पानी भी भी उनके अनुकूल नहीं था। और जैसे कोई पक्षी परतंत्र होते हुए पिंजड़े में बंद रहता है इस प्रकार का माहौल जेल की भांति उन्हे जरा भी पसंद नहीं था। और यदि कभी कोई बीमारी किसी को परिवार में हो जाए तो पड़ोसी को भी उसकी मदद की जरूरत की बात तो क्या उसे हवा तक लग पाना भी मुश्किल था।

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फिर भी दो रोटी कमाने और आधुनिक शिक्षा जो आजकल के लोगों की एक नकारात्मक सोच कि शहरों में अच्छी शिक्षा गांव की अपेक्षा मिल सकती है कुछ इन वजहों से उन्हे न चाहते हुए भी उन्हें अपने परिवार के भरण पोषण और कुछ दशकों से विशेष रूप से गांव के लोगों की इस प्रकार की बदली हुई मानसिकता को और फैशनेबल सी इस दौड़ में खुद को भी जैसे अंकित करते हुए अपने गांव की जन्मभूमि छोड़कर जाना पड़ा।

उत्तराखंड पलायन के दर्द को उकेरती यह करुण कहानी - पलायन की व्यथा का अंत

दीपक के पिता श्यामलाल के मन में एक समय तो अपनी जन्मभूमि से दूर जाने का गम उन्हें मन ही मन सताने लगा एक बार तो उन्होंने मन बना लिया कि वे नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले लें और भले ही पेंशन कम मिले पर उनके हिसाब से उससे उनके परिवार का भरण पोषण हो ही जाता।

लेकिन दीपक की मां जमुना देवी थोड़ा आधुनिक विचारधारा की थी और उसे शहरों की चकाचौंध पसंद थी क्योंकि उनका जो मायका था वो कस्बाई क्षेत्र ऋषिकेश  के अंतर्गत आता था।

इसलिए परिवार के लगभग सभी सदस्यों के दबाव के कारण दीपक के पिता को अपनी स्वैच्छिक सेवानिवृति का फैसला बदलना पड़ा और ड्यूटी ज्वाइन करने के लिए देहरादून  शहर में परिवार के साथ जाना पड़ा।

जिस दिन शाम की रोड़वेज की बस पकड़ने के लिए दीपक को अपने घर से निकलना था उससे ठीक पहले दीपक अपने परम मित्र जगतू से मिलने के लिए चला जाता है, जगतू तो मजबूर था क्योंकि उसके घर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ न होने के कारण वह किसी भी हालात में लाख चाहने पर भी दीपक के साथ नहीं जा सकता था उधर अभी अपने घरवालों की डर की वजह से वह दीपक को भी किसी भी स्थिति में अपने साथ ले जाने में असमर्थ था इसलिए जब दीपक के अपने प्रिय मित्र से दूर जाने का समय नजदीक आया तो दोनों मित्र मित्रप्रेम में एक दूसरे से लिपटकर खूब रोए तब दीपक ने अपने घर का लैंडलाइन नंबर जगतू को दे दिया और दीपक तब उस नंबर से फ़ोन से बात करने की बात कहकर और कुछ पैसे अपने मित्र जगतू को सौंपकर परिवार सहित सुबह  9 बजे की बस से देहरादून की ओर रवाना हो गए।

अब कुछ दिन दीपक और जगतू शुरुवात में तो फ़ोन पर आपस में खूब बातें तो करते थे लेकिन जब उस पर शहर की हवा लगी तो वह  जैसे जैसे शहर के नए नए दोस्त बनाने लगा उसने अपने गांव के परम मित्र बचपन के लंगोटी यार जगतू को जैसे भुला सा दिया। और नौबत यहां तक आ गई कि दीपक ने अब अपने उस वफादार दोस्त को भुलाकर उसके फ़ोन को रिसीव करना भी छोड़ दिया और शहर की चकाचौंध में जैसे खो सा गया।

इधर जगतू को दीपक के इस प्रकार के व्यवहार से उसे बहुत दुःख हुआ। जगतू ने अब तो एक सौगंध ले ली कि अब पढ़ाई में खूब मन लगाकर वह बहुत बड़ा आदमी बनेगा अब जगतू ने इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करके गांव में ही रोजगार के संसाधन जुटाने के बारे में विभिन्न प्रकार के प्रोजेक्टों पर काम करना शुरू कर दिया।

उसने कहीं शुद्ध बोतलबंद अमृततुल्य पानी को बिसलेरी में जैसे प्लांट का सफल संचालन कर दिया कहीं खेती पर विभिन्न प्रयोग करके कहीं मौनपालन कहीं कुक्कुटपालन भेड़पालन जैसे प्रोजेक्ट पर काम करके अपने गांव और आसपास के युवावों को भी रोजगार के अवसर सृजित कर दिए अब तो जगतू की जिंदगी तो आनंद से व्यतीत होने लग गई।

इधर दीपक उच्च शिक्षा लेकर एक कम्पनी में अच्छी खासी सैलरी पर काम करने में मशगूल हो गया । लेकिन अब देहरादून  शहर की आबोहवा और वहां की बढ़ती जनसंख्या और प्रदूषण का माहौल उसे सूट नहीं कर पाया।

इससे सबसे बड़ा कारण जिससे दीपक शहर में अच्छी स्वास्थ्य सुविधा के बावजूद जो 2020 में वह कोरोना नाम की जानलेवा बीमारी का दौर चल रहा था उससे वह भी उस बीमारी के प्रभाव में आकर के वह बीमार रहने लगा और वह महामारी का शिकार हो गया और डॉक्टरों की टीम ने उसे क्वारेंटाइन होकर के गांव की शुद्ध हवा और उसकी जलवायु और पर्यावरण में ही रहकर उस महामारी से बचने के लिए सलाह दी।

इधर दीपक के पिता श्यामलाल को अपना गांव और अपने गांव के मित्र बड़े बूढ़े याद आने लगे अक्सर उनके साथ बिताए गए हंसी खुशी के पल तो याद आ आ के उन्हे सताने लगे अपने दोस्तों और जान पहिचान वालों के साथ फ़ोन आदि पर बातें करने का तो दीपक के पिता को समय ही नहीं मिलता था और यदि समय खाली उन्हें मिल भी जाता तो उनकी इच्छा बात करने की कभी कभी होती भी नहीं थी।

दीपक के पिता श्यामलाल अब अकेलापन महसूस करने लगे नौकरी में भी उनका मन कम लगता था फलस्वरूप वे एक गम्भीर मानसिक बीमारी डिप्रेशन का शिकार हो गए। अब दीपक के पिता की ऐसी स्थिति देखकर उनके सारे परिवार वाले परेशान हो गए और एक दिन अपने किसी नजदीकी रिश्तेदार के कहने पर उन्हें शहर के एक अच्छे मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले गए।

डॉक्टर को दीपक के पिता और दीपक के पूरी तरह स्वस्थ होने का एक महत्वपूर्ण ईलाज गांव वापस जाकर वहीं पुरानी जिंदगी शुरू कर अपनी परंपराओं से जुड़ना ही प्रमुख था और यह विश्वास भी था कि दोनों की मर्ज का इलाज़ यह भी सम्भव हो सकता है।

डॉक्टर के मुंह से गांव वापस जाने की बात जैसे ही दीपक के पिता श्यामलाल ने सुनी तो जैसे लगा कि उन्हें कोई संजीवनी मिल गई हो दीपक के पिता के चेहरे पर एक हल्की सी चमक जैसे कौंध गई, यह सारा दृश्य दीपक की मां जमुना देवी जो एक सुशिक्षित और समझदार महिला भी थी देखकर उनकी भी थोड़ी चिंता मानो दूर हो गई।

दीपक भी डॉक्टर के पास अपने मां और पिताजी के साथ वहां पर था वह भी अपनी मां का जैसे गांव जाने का मौन समर्थन पाकर खुश हो गया। अब दीपक के पिता श्यामलाल ने अपना रिटायरमेंट चार साल पहले ही लेकर मन को अपने पहले से बेहतर और स्वस्थ पाकर अगले दो दिन बाद ऑफिस के काम निपटाने के बाद देहरादून शहर से अपने गांव बाणसोली जाने की तैयारी में जुट गए, और बस पकड़ कर अगली सुबह अपने गांव बाणसोली की तरफ़ रवाना हो गए।

अपने परिवार के साथ गांव पहुंचकर दीपक को सबसे पहले अपने बचपन के उस पक्के मित्र जगतू की याद आई लेकिन जब उसे याद आया कि उसने अपने बड़े भाई समान अपने प्रिय मित्र जगतू को नेगलेक्ट किया तो उसे यह बात सोचकर ही बड़ा पछतावा हुआ।

लेकिन उसे पता था कि उसका मित्र एक उदार हृदय और प्रेम में रहने वाला एक शांतप्रिय इंसान है इसलिए मेरे प्रति उसकी भावना उसके प्रति कतई गलत नहीं हो सकती उसको पता था जब जगतू को उसके गांव आने की बात गांव के लोगों से पता चलेगा तो वह बहुत खुश होवेगा।

हुआ भी ऐसा ही जगतू एक सुहृदय और सरल स्वभाव का लड़का था, जैसे ही जगतू को जब दीपक के गांव में पहुंचने की बात पता हुई तो वह दीपक का हालचाल पूछने उसके घर पहुंच गया और अपने विवेक का इस्तेमाल कर दीपक को ढांढस बंधाया दोनों दोस्त अपनी पुरानी यादों में खो गए उन दोनों में प्रेम इतना था कि जैसे ही वे एक दूसरे से मिले आपस में गले लग गए और लिपटकर भावुक होकर उनकी आंखें नम हो गई।

दीपक का पूरा परिवार और खास तौर पर उसके पिता श्यामलाल गांव में अपनी दानवीरता सबके साथ परोपकारी और अच्छे व्यवहार के लिए जाने जाते थे। वह हमेशा गांव वालों की तन मन और धन से हर कोशिश मदद करते थे यही कारण था कि जब बस अड्डे पर उनका आगमन गांव में हुआ तो अधिकांश गांव वाले लोग उनके स्वागत के लिए जैसे वहां तैयार बैठे थे।

गांव पहुंचकर जैसे दीपक के पिताजी के करीबियों ने उन्हें घेरकर उनके स्वास्थ्य के बारे में बात की तो उनको अपने आत्मियों का इतना प्रेम और पुरानी यादें उनकी आंखों को नम कर गई इस प्रकार उनको भावुक देख सीधे साधे बाणसोली गांव वालों के आंखों में भी आंसू आ गए।

दीपक का पूरा और उसके ठीक हो जाने पर उसकी उच्च शिक्षा हासिल होने का उसको लाभ दिलाकर अपने साथ उसे काम में लगा दिया। अब जगतू और दीपक दोनों गांव में रहकर ही  आनंद और सुख  चैन की जिंदगी जीने लगे। उधर चुनाव का दौर आ गया था गांव के लोगों ने दीपक के पिताजी को गांव के ग्राम प्रधान के पद पर निर्विरोध रूप से उनका चुनाव किया।

दीपक के पिता ने एक दिन अपने घर पर सद्भावना पार्टी का आयोजन किया और गांव के विद्वत अनुभवी और प्रतिष्ठित लोगों से एक मीटिंग कर और खास तौर पर जगतू और उसके जैसे गांव के अन्य प्रतिभाशाली युवाओं के साथ मिलकर गांव की कई समस्याओं के निदान हेतु कई प्रस्ताव और परियोजनाएं तैयार कर के धीरे धीरे उनको आगे अप्रूव कर क्रियारूप में परिणत कर अपने गांव में विकास की धारा प्रवहित कर जैसे बाणसोली गांव को एक स्वर्णनगरी की तरह बना दिया और गांव के लोग दीपक के पिता श्यामलाल को अपनी सर आंखों का सरताज बना दिया और आनंद के साथ अपना जीवन व्यतीत करने लग गए।

उत्तराखंड पलायन कहानी की संकल्पना-प्रदीप बिजलवान बिलोचन
लेखक के बारे में –
उत्तराखंड पलायन के दर्द को उकेरती यह करुण कहानी - पलायन की व्यथा का अंत
ग्राम बामनगांव टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड के निवासी श्री प्रदीप बिजलवान बिलोचन  जी  उत्तराखंड के आप शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। और देवभूमि दर्शन के लिए नियमित लेख, कहानियां लिख कर अपना अमूल्य सहयोग देते रहते हैं। आशा करते हैं आगे भी हमें इनका अमूल्य सहयोग मिलता रहेगा। यही भी उत्तराखंड के बारे में कोई गद्य लिखने के शौकीन हैं।  और उसे डिजिटल मंच पर संकलित करवाना चाहते हैं तो, उस गद्य को हमे भेजे। यदि आपका गद्य ,कहानी या जानकारी वाला लेख  उच्च गुणवक्ता का हुवा तो उसे हम अपने डिजिटल पोर्टल में अवश्य स्थान देंगे।

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बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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