Thursday, April 17, 2025
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उत्तराखंड की लोक कलाएं, उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति की पहचान

उत्तराखंड की लोक कलाएं – लोक कला की दृष्टि से उत्तराखण्ड बहुत समृद्ध है। घर की सजावट में ही लोक कला सबसे पहले देखने को मिलती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएं घर में ऐपण (अल्पना) बनाती हैं। इसके लिए घर,आंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, स्नान चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवीत चौकी, विवाह चौकी, धूलिअर्घ्य चौकी, वर चौकी, आचार्य चौकी, अष्टदल कमल, स्वास्तिक पीठ, विष्णु पीठ, शिव पीठ, शिव शक्ति पीठ, सरस्वती पीठ आदि परम्परागत रूप गांव की महिलाएं स्वयं बनाती हैं।

इनका कहीं प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। हरेले आदि पर्वों पर मिट्टी के डिकरे बनाए जाते हैं। ये डिकरे भगवान के प्रतीक माने जाते हैं। यहां के घरों को बनाते समय भी लोक कला प्रदर्शित होती है। पुराने समय के घरों के दरवाजों व खिड़कियों को लकड़ी की सजावट के साथ बनाया जाता रहा है। दरवाजों के चौखट पर गणेश आदि देवी-देवताओं, हाथी, शेर, मोर आदि के चित्र नक्काशी करके बनाए जाते थे।

पुराने समय के बने घरों की छत पर चिड़ियों के घोंसले बनाने के लिए भी स्थान छोड़ा जाता था। नक्काशी व चित्रकारी पारम्परिक रूप से आज भी होती है। इसमें समय काफी लगता है। वैश्वीकरण के दौर में आधुनिकता ने पुरानी कला को अलविदा कहना प्रारम्भ कर दिया। अल्मोड़ा सहित कई स्थानों में आज भी काष्ठ कला देखने को मिलती है। उत्तराखण्ड के प्राचीन मन्दिरों, नौलों में पत्थरों को तराश कर विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र बनाए गए थे।
उत्तराखंड की लोक कलाएं
प्राचीन गुफाओं तथा उड्यारों में भी शैल चित्र देखने को मिलते हैं। उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न हैं। यहां के वाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमाऊं, रणसिंगा, भेरी, हुड़का, मोर्छग, बीन, डौंरा, कुरूली, अलगोजा हैं।

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ढोल-दमाऊं तथा बीन-बाजा विशिष्ट वाद्ययन्त्र हैं जिनका प्रयोग आमतौर पर हर आयोजन में किया जाता है। गढ़वाली और कुमाउंनी के अलावा जनजातियों में भिन्न-भिन्न तरह के लोक संगीत और वाद्य यंत्र प्रचलित हैं। यहां प्रचलित लोक कथाएं भी स्थानीय परिवेश पर आधारित हैं।

लोक कथाओं में लोक विश्वासों का चित्रण, लोक जीवन के दुःख-दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है। प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लोकगायक रात भर ग्रामवासियों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालुसाही, रमैल, जागर आदि प्रचलित थे। अब भी गांवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती हैं। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां (आंण) आज भी प्रचलन में हैं।

उत्तराखण्ड का छोलिया नृत्य काफी प्रसिद्ध है। चमोली के मारछा जन जाति का पौंणा नृत्य और पिण्डर घाटी का वीर नृत्य काफी लोकप्रिय हो रहा है। छोलिया नृत्य में नर्तक लम्बी-लम्बी तलवारें और गेण्डे की खाल से बनी ढाल लिए युद्ध करते हैं। यह युद्ध नगाड़े की चोट तथा रणसिंगा के साथ होता है। कुमाऊं तथा गढ़वाल में झुमैला तथा थड्या नृत्य होता है। झौड़ा नृत्य में महिलाएं और पुरुष बहुत बड़े समूह में गोल घेरे में हाथ पकड़कर गाते हुए नृत्य करते हैं।

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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