नईमा खान उप्रेती उत्तराखंड रंगमंच की पहली महिला, जिसने उत्तराखंड के रंग मंच को और उत्तराखंड के लोक गीतों को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई। अपने पति श्री मोहन उप्रेती जी साथ मिल कर उत्तराखंड रंग मंच और उत्तराखंड के लोक गीतों को नई पहचान दिलाई। नईमा जी ने एक मुस्लिम परिवार में जन्म लेकर , अल्मोड़ा के कट्टर ब्राह्मण परिवार में शादी की । नईमा खान और मोहन उप्रेती जी की उत्तराखंड का पहली अंतरधार्मिक विवाह था शायद।
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प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा दीक्षा –
नईमा खान का जन्म, 25 मई 1938 को उत्तराखंड अल्मोड़ा के कारखाना बाजार के प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार में हुवा था। उनके दादा हाजी नियाज मुहम्मद ब्रिटिश काल मे नगर पालिका अल्मोड़ा में म्युनिसिपल कमिश्नर थे। उनके पिता शब्बीर मुहम्मद खान ने सामाजिक रूढ़ियों को दरकिनार कर एक ईसाई महिला से विवाह किया था। पिता के इन्ही आधुनिक विचारों का नईमा खान पर भी प्रभाव पड़ा।
नईमा जी की प्रारंभिक शिक्षा एडम्स गर्ल्स कॉलेज अलमोड़ा से तथा ,12 की शिक्षा रामजे कॉलेज अल्मोड़ा से ही पूरी की। नईमा जी को बाल्यकाल से ही संगीत में काफी रुचि थी। 1958 में उन्होंने कला, अंग्रेजी साहित्य, राजनैतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि ली। 1969 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय में 3 साल का डिप्लोमा किया। नईमा जी ने फ़िल्म एंड टेलीविजन इंसिट्यूट ऑफ इंडिया पुणे से भी डिप्लोमा लिया।
नईमा खान की मोहन उप्रेती जी से मुलाकात एवं शादी –
नईमा खान की और मोहन उप्रेती जी प्रेम कथा और प्रथम मुलाकात काफी रोमांचक थी। नईमा खान और मोहन उप्रेती की का विवाह शायद उत्तराखंड का पहला अंतरजातीय विवाह था। नईमा खान जी ने एक इंटरव्यू में बताया कि वो एडम्स गर्ल्स कॉलेज अल्मोड़ा में सांस्कृतिक प्रोग्रामों में हमेशा प्रथम आती थी।
लेकिन एक दिन मोहन उप्रेती जी वहाँ जज बनकर आये, उन्होंने नईमा आपा को 2nd स्थान दिया। इससे नईमा खान जी काफी रुष्ट हुई। उन्होंने बाद में भी मोहन उप्रेती जी की बाद में भी आलोचना की । नोक झोंक का यह सफर कब दोस्ती और प्यार में बदल गया पता ही नही चला। धीरे धीरे वो दोनो मिल कर प्रोग्राम करने लगे।
यही सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए दोनो ने विवाह का विचार किया, जाती, धर्म की अड़चने राह मो रोड़ा डाले खड़ी थी। जहाँ मोहन उप्रेती जी एक कट्टर ब्राह्मण थे, और नईमा जी एक मुस्लिम।
कहते हैं पहले मोहन उप्रेती जी का परिवार इस विवाह के लिए राजी नही हुवा लेकिन, बाद में दोनो बच्चों की जिद के आगे दोनो परिवारों को झुकना ही पड़ा । नईमा खान बन गई नईमा खान उप्रेती । यहाँ से दोनो पति पत्नी ने उत्तराखंड नाट्य और लोक संगीत को एक नया आयाम देने का कार्य शुरू किया।
कार्य एवं व्यवसाय –
नईमा खान उप्रेती बचपन से ही कला संस्कृति क्षेत्र में सक्रिय थी। उन्हें अपने लोक संगीत से काफी लगाव और प्यार था। नईमा जी ने कुछ समय बाहर काम करके,अपने पति मोहन उप्रेती जी के साथ वापस अपने जन्मभूमि मातृभूमि की कला संस्कृति को सवारने में लग गई।
नईमा जी को घसियारियों , घसेरी की पसंदीदा गायिका कहा जाता है। उन्होंने अधिकतर घसेरी गीत गाये। नईमा खान उप्रेती जी द्वारा बेड़ू पको बारो मासा ,पारा भिड़ा को छे घसियारी, ओ लाली हो लाली होसिया अपने पति मोहन उप्रेती जी के साथ गाये। जो काफी लोकप्रिय रहे। नईमा खान उप्रेती और मोहन उप्रेती जी ने कई आकाशवाणी केंद्रों से कार्यक्रम किये।
1969 से वो पर्वतीय कला केंद्र की सक्रिय सदस्या रही। नईमा खान उप्रेती ने 1995 में लोक कलाकार संघ। की सदस्यता भी ली। इनके साथ अनेक महिला एवं पुरुष कलाकार संघ से जुड़े। नईमा खान जी ने मोहन उप्रेती जी की बहिन हेमा उप्रेती जोशी जी के साथ भी सामूहिक गीत प्रस्तुत किये।
नईमा खान उप्रेती और मोहन उप्रेती जी ने साथ मिल कर । उत्तराखंड नाट्य कला को नई उचाई दी। नाटकों में नईमा जी ने ज्यादा गायन की भूमिका निभाई।उत्तराखंड की लोक कथाओं, राजुला मालूशाही , अजुवा बफौल ,गोरिधना का नाट्य रूपान्तरण का श्रेय मोहन उप्रेती और नईमा उप्रेती को जाता है।
नाटकों में नईमा जी ने बहुत सारे नाटकों में कार्य किया। उनके प्रमुख नाटक , गौरा, पंचवटी में अपना पार्श्व संगीत दिया। पंचवटी में उन्होंने रामायण की चौपाई गाई, तथा गौरा नाटक में , गौरा के लिए विरह गीत गाया।
इसके अलावा अपने पति मोहन उप्रेती जी एवं मोहन उप्रेती जी की बहिनों के साथ मिल कर अल्मोडा की रामलीला के लिये रेकॉर्डिंग भी की। वो दिल्ली दूरदर्शन के प्रोड्यूसर के पद पर भी रही।
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नईमा खान जी के प्रसिद्ध गीत –
- बेड़ू पको बारोमास
- पारे भीड़ा की बसंती छोरी
- सुर सुर मुरली बासिगे
- ओ लाली ओ लाली होसिया
नईमा खान उप्रेती जी की मृत्यु –
दिल्ली दूरदर्शन के प्रोड्यूसर के पद से रिटायर होने के बाद, वो दिल्ली मयूर विहार अपने घर मे अकेले रहती थी। 15 जून 2018 को 80 वर्ष की उम्र में नईमा आपा चुप चाप,हम सबको छोड़ कर ,इस दुनिया से चली गई। उन्होंने मृत्यु से पहले अपना शरीर दिल्ली मेडिकल कॉलेज को दान दे दिया था।
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