घुघुतिया उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोकपर्व है। यह लोकपर्व प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन मनाया जाता है। इस दिन आटे और गुड़ के साथ मिलाकर विशेष पकवान घुघुते बनाये जाते हैं। घुघुतिया के दिन घुघुते बनाने के पीछे अनेक लोककथाएं और किवदंतियां जुड़ी हैं। जिसमे से अधिकतम कहानियाँ आपको पता ही होगा। अगर नहीं पता तो इस पोस्ट के अंत में घुघुतिया पर्व से जुडी कथाओं का लिंक दे रहे हैं ,जरूर पढियेगा। अब आते आज के शीर्षक की मूल कहानी पर। घुघुतिया के दिन घुघुतों के साथ ढाल तलवार भी बनाते हैं ,और साथ में हुड़का रस्सी और लकड़ी लाने के लिए सिन भी बनाते हैं।
मकर संक्रांति के दिन घुघुतिया के साथ ढाल तलवार बनाने के पीछे एक ऐतिहासिक कहानी जुडी है ,यह ऐतहासिक कहानी उत्तराखंड के सबसे पुराने राजवंश कत्यूर वंश से जुडी है। कहते हैं कुमाऊं की लक्ष्मीबाई के नाम से विख्यात कत्यूर वंश की राजमाता जियारानी चित्रशिला में निवास करती थी। एक ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार सन 1418 ईस्वी में तुर्कों ने रानीबाग में आक्रमण करके राजमाता जियारानी को बंदी बना लिया था। कहते हैं तुर्को ने बड़ा आक्रमण किया था। जैसे ही कत्यूरियों को इसकी सूचना मिली उन्होंने भी अपनी पूरी शक्ति के साथ तुर्को से भी बड़ा आक्रमण करके राजमाता जियारानी को छुड़ा लिया था।
कत्यूरियों ने यह विजय मकर संक्रांति के दिन प्राप्त की थी ,और यह कत्यूरियों ने इतना बड़ा पलटवार किया था कि पहाड़ की अधिकतम जनता को इस बात का पता चल गया था। लोगो ने अपने कत्यूरी राजाओं की जीत की ख़ुशी और राजमाता जिया रानी को सकुशल बचाने की ख़ुशी मकर संक्रांति के दिन ढाल तलवार बनाकर दिग्विजय की खुशिया मनाई गई। उससे उस समय पहाड़ के बच्चो के अंदर वीरता की भावना का संचार करने के लिए उनको घुघुते के ढाल तलवार बना कर दिए।
आजकल देश में कोई बड़ी घटना घटती है तो उस प्रतिक्रिया में कई लोग सोशल मीडिया में पोस्ट करके रील इत्यादि बनाकर अपनी भावनाये जाहिर करते हैं ,ठीक उसी प्रकार उस समय पहाड़ों में ऐसा कोई संचार की व्यवस्था न होने के कारण लोग अपनी भावनाये त्यौहार के रूप में या अन्य खुशियों के रूप में व्यक्त करते थे।
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घुघुतिया के दिन रानीबाग में लगता है मेला –
रानीबाग में इसी उपलक्ष्य में मकर संक्रान्ति (उत्तरायणी) को मेले का आयोजन किया जाता है। जहां पर कत्यूर वंश के लोग ढोल-दमाओं के साथ नाचते हुए ‘जै जिया’ का नारा लगाते हुए जियारानी का डोला लेकर आते हैं। और वहां पर पौष की कड़ाके की ठंड वाली रात में अग्नि का धूना जलाकर उसके चारों ओर बैठकर माँ जिया की जागर गाथाएं सुनाते हैं और श्रोताजन बड़ी श्रद्धा से इन गाथाओं को सुनते हैं। तथा अगले दिन प्रातः चित्रशिला पर स्नान करके व जियारानी की गुफा के दर्शन करके अपने-अपने घरों को जाते हैं।
संदर्भ – उत्तराखंड ज्ञानकोष।
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