बूढ़ी दिवाली 2024 – हिमालयी क्षेत्रों में दीपावली एक से अधिक बार मनाने की परम्परा है। उत्तराखंड से लेकर हिमाचल प्रदेश तक पहाड़ी इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाने की परम्परा है। यह बूढ़ी दिवाली हिमालयी क्षेत्रों में अपनी अपनी सुविधानुसार मनाई जाती है। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र और गढ़वाल के कुछ हिस्सों में में हरिबोधनी एकादशी के दिन बूढ़ी दिवाली इगास और बूढ़ी दिवाली के रूप में मनाई जाती है। इसके बाद मुख्य दीपावली के ठीक एक महीने बाद जौनपुर उत्तरकाशी की गंगाघाटी में मंगसीर बग्वाल के रूप में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। वहीं रवाई घाटी में बूढी दीवाली देवलांग के रूप में मनाई जाती है।
इसके साथ साथ उत्तराखंड के खास जनजातीय क्षेत्र जौनसार बग्वाल और हिमाचल परदेस के कुछ क्षेत्रों में दीपवाली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली अपने अपने पारम्परिक अंदाज में मनाई जाती है। मगर हिमालयी क्षेत्र की पहाड़ी दिवाली एक चीज कॉमन होती है ,पहला कॉमन है दीपवाली पर चूड़े बनते हैं और मसाल प्रदर्शन होता है जिसे लोग अपने क्षेत्रीय परम्परा के अनुसार प्रयोग करते हैं।
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जौनसार की बूढ़ी दिवाली 2024 :
उत्तराखण्ड के देहरादून जनपद में टाँस और जाख डांडे के मध्य में अवस्थित जनजातीय क्षेत्र बावर में बग्वाल का उत्सव दीपावली के एक महीने बाद मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। बूढ़ी दिवाली 2024 में मुख्य दीपावली के ठीक एक महीने बाद 1 दिसंबर 2021 को मनाई जाएगी।
इसमें मध्य रात्रि के समय गांव के युवक-युवतियां गांव के बाजगियों की अगवानी में गाजे-बाजों के साथ अपने-अपने घरों से चार-चार, पांच-पांच हाथ लम्बी मशालें जलाकर उन्हें तलवारों की तरह सिरों के ऊपर घुमाते हुए नाचते गाते हुए गांव के मध्य में स्थित ‘थात’ में एकत्र कर देते हैं। इस पर गांव भर के सभी स्त्री-पुरुष, लड़के-लड़कियां परस्पर उस अग्निपुंज के चारों ओर वृत्त बनाकर, पुरुष हाथों में फरेसों को तथा महिलाएं रूमालों को लहराते हुए हारुलगीतों के साथ नृत्य करते हैं।
इनमें भाग लेने वाले गायकों व नर्तकों तथा दर्शकों को तरोताजा रखने के लिए इस अवसर के लिए विशेष रूप से तैयार की गयी व सभी घरों से लायी गयी मडुवे की विशिष्ट मदिरा को एक बड़े पात्र में एकत्र कर उसे पिलाने के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो मांगे जाने पर एक पात्र में भर-भर कर उन्हें पिलाता रहता है। कुछ देर बाद मशालें तो समाप्त हो जाती हैं किन्तु नृत्य-गीतों का दौर यथावत् चलता रहता है और एतदर्थ उनके नये-नये वृत्त बनते रहते हैं। जो कभी पुरुष और एक महिला की पंक्ति के रूप में और कभी पुरुष और महिलाओं की दो अर्घालियों के रूप में संयुक्त हो जाते हैं।
सुबह होने के बाद अधेड़ लोग तो अपने घरों को चले जाते हैं, किन्तु युवक तथा इस उत्सव को मनाने के लिए मायके आयी हुई ध्याणियां भिनसार तक नाचते-गाते रहते हैं। सूर्योदय होने पर बाजगी लोग प्रभाती बजाते हैं तो सारे गांव के लोग आकर पुनः थात में एकत्र होते हैं। इस अवसर पर बग्वाल की खुशी में पांडवनृत्य होता है। लोग नर्तकों के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं और उनका आर्शीवाद लेकर विसर्जित होते हैं।
अखरोट मांगने की बिरुड़ी परम्परा :
बग्वाल में भाग लेने वाले युवक और युवितियां अपने छोटे-छोटे समूह बनाकर गांव के प्रत्येक घर में जाकर ‘बिरुड़ी’ मांगते हैं, जिसमें घर की मालकिन अपने घर के दरवाजे पर खड़ी होकर उनकी ओर अखरोट बिखेरती है और वे उन्हें बटोरकर अपनी झोलियों में समेटते हैं। इसके बाद में वे लोग देहरी पर अपने मदिरापात्र (बाल्टी) को रखते हैं। इस पर घर का सयाणा अन्दर से एक पात्र में मदिरा लाकर उसमें उड़ेल देता है। इस प्रकार सभी घरों से बिरुड़ी (अखरोट और मदिरा) एकत्र करके वे अपने-अपने घरों को जाते हैं।
इसके बाद पूर्वान्ह में भी गाना बजाना, खाना-पीना चलता रहता है। दोपहर होने पर पत्नियां अपने पतियों व बहिनें अपने भाइयों को मल मल कर गरमपानी से नहलाती पोछती हैं। इसे इस दिन का शुभशगुन माना जाता है। बकरा काटा जाता है दिन में मांस और भात का सारे गांव का सामूहिक भोज होता है।
बूढ़ी दिवाली से जुड़ी कहानी –
गढ़वाल के उत्तरकाशी क्षेत्र में भी इसे मार्गशीर्ष में मनाया जाता है। इसके संबंध में जनश्रुति भी प्रचलित है, उसके अनुसार 18वीं शती के उत्तरार्द्ध में गरेती (जोहार) के दोलपा पांगती के दो पुत्र मादू और भादू थे। जिन्होंने गढ़वाल के उत्तरकाशी जनपद के समीपवर्ती मल्ला टकनौर क्षेत्र के 8 ग्रामों को हि.प्र. की रियासत के कब्जे से मुक्त करवा कर गढ़वाल में सम्मिलित करवाया था। इससे उनका वहां पर बड़ा सम्मान हो चला था।
कहा जाता है कि एक बार इस क्षेत्र में अत्यधिक हिमपात हो जाने से ये कार्तिक मास की दीपावली को मनाने के लिए अपने घर जोहार नहीं जा पाये थे। इस कारण ये अत्यन्त दुःखी थे। राजा ने इनको प्रसन्न करने के लिए राज्य भर में मार्गशीर्ष मास की अमावस्या को दीपावली मनाये जाने की राजाना प्रसारित करवा दी। तब से आज तक इस क्षेत्र में इसी दिन दीपावली (बग्वाली) का पर्व मनाया जाता है। स्थानीय लोग इसे बग्वाल या बूढ़ी दिवाली कहते हैं।
संदर्भ – डॉ प्रयाग जोशी। और उत्तराखंड ज्ञानकोष।
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