Wednesday, April 2, 2025
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बग्वालीपोखर कुमाऊं का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व का प्रसिद्ध क़स्बा जहाँ कौरवों ने खेली थी चौसर।

बग्वालीपोखर – उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में एक ऐसा क़स्बा है ,जो अपने पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व के लिए विख्यात है। अल्मोड़ा जिले में बसा एक छोटा सा क़स्बा जो रानीखेत तहसील के अंतर्गत आता है। रानीखेत कौसानी रोड पर रानीखेत से 22 किलोमीटर दूर गगास नदी के पास स्थित है। इसका नाम पड़ने का कारण यहाँ पुराने समय में खेली जाने वाली बग्वाल ( पत्थर युद्ध ) है। इसका एक पुराना नाम हस्तिनापुर भी है ,जिसका संबंध द्वापरयुगीन कौरवों से है। प्राचीनकाल में बग्वालीपोखर अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा है।

बग्वालीपोखर में कौरवों ने खेली थी चौपड़ –

कहते हैं बग्वालीपोखर क्षेत्र का पौराणिक इतिहास द्वापरयुग से जुड़ा है। कहते हैं कौरवों ने यहाँ चौपड़ खेली थी। पौराणिक जानकारी के अनुसार जब पांडव अज्ञातवास में भटकोट की पहाड़ियों में स्थित पांडवखोली में निवास कर रहे थे तो कौरवो को भी भनक लग गई कि पांडव यहीं कही रह रहे हैं। पांडवों का अज्ञातवास भंग करने के इरादे से कौरव भी इधर आये और पांडवों को ढूढ़ते -ढूंढते कौरवछीना तक गए ,जिसे वर्तमान में कुक्कुछीना कहते हैं। कहते हैं कौरवों की सेना यहाँ से आगे नहीं बढ़ पायी।

कौरव कुछ समय तक पांडवों की टोह लेने के इरादे से यही रूक गए ,कहते दुशाःशन ने बग्वालीपोखर बसूलीसेरा क्षेत्र के एक मंडलीक राजा को हराकर इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। कहते हैं वर्तमान शकुनी गांव का नामकरण भी शकुनि मामा के नाम पर हुवा है। जनश्रुतियों के अनुसार बग्वालीपोखर चौक पर कौरवो ने जुवा खेला था , इसलिए बग्वालीपोखर का नाम हस्तिनापुर भी कहते हैं।

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कौरवों द्वारा जुवा खेलने की जनश्रुति क्षेत्र में ऐसी फैली कि यह क्षेत्र द्युतक्रीड़ा का बड़ा केंद्र बन गया ,हालंकि यहाँ मेले की शुरुवात कत्यूरों के शासन के बाद मानी जाती है। कहते हैं पहले यहाँ मेले में दूर दूर से एक से बढ़कर एक द्यूतक्रीड़ा के शौकीन आते थे। जुवे की यह कुप्रथा लगभग बीते दो दशक पहले कुछ जागरूक बुजुर्गों की पहल से बंद हुई। अब भी दीपावली के आस पास इस क्षेत्र में इस कुप्रथा का प्रभाव देखने को मिलता है।

कभी खेली जाती थी बग्वाल इसलिए नाम पड़ा बग्वालीपोखर –

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कुमाऊं गढ़वाल के अनेक हिस्सों की तरह यहाँ भी बग्वाल खेली जाती थी। बग्वाल का अर्थ होता है पत्थरों की वर्षा या पत्थरों का युद्ध। पहले जमाने में पहाड़ों के मांडलिक राजा या क्षेत्र के प्रधान इत्यादि अपने क्षेत्र के रणबांकुरों से वर्षा के बाद पड़ने वाली संग्रातियों या त्योहारों में किसी मैदानी स्थल में इकट्ठा होकर पत्थर युद्ध का अभ्यास करवाते थे ,जिसे बग्वाल कहते हैं। इस क्षेत्र में भी भाई दूज यानी दीपावली के तीसरे दिन बग्वाल खेली जाती थी और यहाँ एक पोखर यानि तालाब भी था,इसलिए इसे बग्वालीपोखर कहते हैं। और कुमाऊं में भाई दूज को बगवाई त्यौहार भी कहते हैं।

बग्वाल में अत्यधिक खून खराबा होने और लोगों की जान चली गई इसलिए आज से लगभग दो या तीन सौ साल पहले जागरूक बुजुर्गों ने पत्थर बग्वाल बंद करवाकर जल बग्वाल शुरू करवा दी। जिसमे तालाब में पत्थर मारकर परम्परा निभाई जाती थी। धीरे धीरे पत्थरों से तालाब पट गया और वहां एक मैदान बन गया है। अब उस मैदान पर बग्वालीमेले में सांकेतिक रूप से ओड़ा भेट्ने की रस्म होती है।

बग्वालीपोखर कुमाऊं का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व का प्रसिद्ध क़स्बा जहाँ कौरवों ने खेली थी चौसर।

बग्वालीपोखर का युद्ध –

बग्वालीपोखर का इतिहास आदिकाल से ही रक्तरंजित रहा है। यह घाटी ऐतिहासिक लड़ाई और उनके कारणों के लिए फेमस है। कुमाऊं के इतिहास के अनुसार 1777 ईस्वी में कुमाऊं की सेना  मोहन चंद ( मोहन सिंह रौतेला ) और गढ़वाल की सेना ललित शाह के नेतृत्व में यहाँ युद्ध लड़ी थी। जिसमे ललितसाह विजयी हुए और प्रद्युम्नशाह को कुमाऊं की गद्दी सौपीं गई थी।

नोट – तो यह था ,कुमाऊं के एक ऐतिहासिक क्षेत्र बग्वालीपोखर का संक्षिप्त इतिहास , अच्छा लगा हो तो शेयर अवश्य करें और इस संक्षिप्त लेख के लिए हमने निम्न सन्दर्भों का प्रयोग किया है –

  • कुमाऊं का इतिहास पुस्तक
  • उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक
  • दैनिक जागरण समाचारपत्र
  • गढ़वाल का इतिहास पुस्तक

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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