उत्तराखंड (Uttarakhand) अपनी प्राकृतिक सुंदरता और समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं (Cultural Traditions) के लिए प्रसिद्ध है। यहां की लोक संस्कृति में रितुरैण (Riturain) और चैती गीत (Chaiti Songs) का विशेष स्थान है। ये गीत न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक बंधनों को मजबूत करने का भी काम करते हैं।
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रितुरैण और चैती गीत क्या हैं? (What are Riturain and Chaiti Songs? ) –
रितुरैण उत्तराखंड के पारंपरिक गीत हैं जो विशेष रूप से वसंत ऋतु (Spring Season) में गाए जाते हैं। इन गीतों को चैत्र मास (Chaitra Month) में गायक-वादक समूह, औजी (Auji), वादी (Vadi), और मिराशी (Mirasi) लोग घर-घर जाकर गाते हैं। चैत्र मास में गाए जाने के कारण इन्हें ‘चैती’ या ‘चैतुआ’ (Chaiti or Chaitua) भी कहा जाता है।
इन गीतों के विषय (Themes) भाई-बहन के पवित्र प्रेम, दूर देश में विवाहित बहनों की मायके की याद, और भाइयों की बहनों से मिलने की आकुलता से जुड़े होते हैं। गीत गाने वालों को गृहस्थ लोग अन्न, वस्त्र, मिष्ठान्न, गुड़ और पैसे भिटौली (Bhitoli) के रूप में देते हैं। यह परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।
कुमाऊं मंडल में रितुरैण की कथा (Story of Riturai in Kumaon Region)
कुमाऊं मंडल (Kumaon Region) में रितुरैण गीतों में गोरीधना (Goridhana) नाम की एक कन्या की कथा गाई जाती है। इस कथा के अनुसार, धना को दोहद की शर्त के रूप में कालिय नाग (Kaliya Nag) से ब्याह दिया गया था। धना का भाई उसे भिटौली देने जाता है, जहां उसे धना की ननद (Sister-in-law) मिलती है। दोनों भावुक होकर मिलते हैं, लेकिन भाई जल्दबाजी में बहन को ‘पैलागन’ (Pailagan) कहना भूल जाता है। इससे ननद को संदेह होता है कि वह धना का भाई नहीं, बल्कि उसका प्रेमी है।
जब कालिय नाग घर लौटता है, तो ननद अपना संदेह प्रकट करती है। नाग क्रोधित होकर भाई का पीछा करता है और रास्ते में उसे घेर लेता है। दोनों के बीच युद्ध होता है, जिसमें दोनों की मृत्यु हो जाती है। यह करुणामयी कथा लोकगायकों द्वारा इतने मार्मिक ढंग से गाई जाती है कि श्रोताओं की आंखें भर आती हैं।
गढ़वाल मंडल में मांगलगीत (Mangal Geet in Garhwal Region)
गढ़वाल मंडल (Garhwal Region) में चैत्र मास के दौरान मांगलगीत (Mangal Geet) गाए जाते हैं। ये गीत नववर्ष (New Year) और बसंत ऋतु के आगमन पर गाए जाते हैं। औजी और हुड़किया-बादी (Hudkiya-Badi) लोग अपने वाद्ययंत्रों के साथ गांव के घर-घर जाकर मंगलकामनाएं (Blessings) देते हैं।
गढ़वाल में औजी लोग सबसे पहले गांव के पंचायत घर और देवस्थल (Temple) में जाकर देवता की धुंयाल (Dhunyal) बजाते हैं। इसके बाद वे गांव के गैख (Gaikh) के आंगन में जाकर मांगलगीत गाते हैं। गृहस्वामी उन्हें नकद धनराशि और गुड़ देकर सम्मानित करते हैं, जिसे ‘खेड़ देना’ (Khed Dena) कहा जाता है।
चैती पसारे की परंपरा (Tradition of Chaiti Pasara)
चैती पसारे (Chaiti Pasara) के दौरान औजी लोग गांव के घरों में जाकर अन्न, वस्त्र और धन एकत्र करते हैं। यह परंपरा पूरे चैत्र मास तक चलती है। गीतों के बोल देवताओं की स्तुति और परिवार की सुख-समृद्धि की कामना से भरे होते हैं।
लुप्त होती परंपराएं (Fading Traditions)
दुर्भाग्यवश, रितुरैण और चैती गीतों की यह समृद्ध परंपरा अब लुप्त होती जा रही है। कुमाऊं में तो यह परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी है, जबकि गढ़वाल में अब भी कुछ लोग इसे जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
रितुरैण और चैती गीत उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान (Cultural Identity) का अहम हिस्सा हैं। ये गीत न केवल मनोरंजन करते हैं, बल्कि सामाजिक एकता और पारिवारिक बंधनों को मजबूत करने का भी काम करते हैं। इन परंपराओं को संरक्षित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।
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