पहाड़ में बसंत पंचमी : उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत में गहराई तक समाया यव संक्रान्ति (स्थानीय नाम: जौ सग्यान या जौ संक्रांति एक ऐसा कृषक उत्सव है, जो सौर पंचांग पर आधारित है। हालांकि इसे अक्सर चंद्र तिथियों से जुड़े वसंत पंचमी या श्री पंचमी के साथ जोड़ दिया जाता है, पर यव संक्रान्ति का मूल सौर संक्रांति और कृषि चक्र में निहित है। यह उत्सव उत्तराखण्ड के मूल किसान समुदाय की पहचान है, जहाँ प्रकृति के चक्र और फसलों की समृद्धि के लिए आभार व्यक्त किया जाता है।
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जौ त्यार कृतज्ञता और नवजीवन का पर्व :
शीत ऋतु के अंत और वसंत के आगमन पर जौ के खेत हरे-भरे अंकुरों से लहलहा उठते हैं। किसानों के लिए यह नन्हीं पत्तियाँ आशा और समृद्धि का प्रतीक होती हैं। यव संक्रान्ति पर स्थानीय देवताओं और पितृदेवों को जौ के कोमल पत्ते अर्पित कर उनकी कृपा के प्रति आभार जताया जाता है। घर की बुजुर्ग महिलाएँ परिवार के सदस्यों के सिर पर यव पल्लव रखकर आशीर्वाद देती हैं, जबकि कन्याएँ बड़ों को ये पत्ते भेंट कर शुभकामनाएँ और दक्षिणा प्राप्त करती हैं। इन पल्लवों को पुरुष टोपियों में और महिलाएँ अपने पारंपरिक शृंगार धम्मिल्ला में सजाती हैं, जो प्रसाद के समान पवित्र माने जाते हैं।
पहाड़ में बसंत पंचमी क्षेत्रीय विविधता:
गढ़वाल में यह उत्सव बेरीमैन (1973) द्वारा दर्ज परंपराओं के अनुरूप मनाया जाता है। गाँव के सयाणा (बुजुर्ग) ढोल-दमाऊं की थाप पर बैलों को सजाकर खेतों में ले जाते हैं, जहाँ धरती माता की पूजा कर पाँच रेखाएँ जोती जाती हैं। टिहरी के जौनपुर क्षेत्र में हरिजन समुदाय गाँव की पांडव चौंरी में जौ की हरियाली लाते हैं, जिसे गोबर से दरवाज़ों पर चिपकाया जाता है। चमोली में वसंत पंचमी की पूर्वसंध्या पर तकिये के नीचे रोली रखी जाती है, और सुबह महिलाएँ गीत गाते हुए देवताओं को जौ के पल्लव अर्पित करती हैं:
“श्रीपंचमी आऊ, जौ की हरियाली लाऊ… पैरोलो नारैण जौ की हरियाली!”
इस दिन बालिकाओं के कान छिदवाए जाते हैं, और ब्राह्मण परिवारों में बच्चों का विद्यारम्भ संस्कार होता है, जहाँ लाल मिट्टी पर ॐ नमः सिद्धम् लिखवाया जाता है।
पितृ पूजा और सामुदायिक उल्लास :
यव संक्रान्ति पर पितरों को दूध, चावल, मांस और दारू चढ़ाई जाती है। बकरे का जिकुड़ी (दिल-कलेजा) अर्पित कर उनकी कृपा माँगी जाती है। गाँवों में घी से भरे मीठे समाले (पूड़ियाँ) बनाए जाते हैं, और लोग एक-दूसरे के घर मिठाई बाँटते हुए उत्सव का आनंद लेते हैं।
आधुनिकता के बीच परंपरा का संघर्ष :
पुण्डीर (2003) के अनुसार, यह उत्सव पितृ पूजा और पांडवों की कथाओं से जुड़ा है, जिन्हें जनजातीय समुदाय अपना रक्षक मानते हैं। हालाँकि, शहरी प्रभावों ने वसंत पंचमी को प्रमुखता दिला दी है, जो अधिकतर नगरीय ब्राह्मणों तक सीमित है। फिर भी, ग्रामीण अंचलों में यव संक्रान्ति की मौलिक भावना जीवित है—जहाँ किसान जौ के खेतों में प्रकृति और पूर्वजों के साथ अपने संबंधों को नमन करते हैं।
भूमि और विरासत का साझा सुर :
यव संक्रान्ति केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि प्रकृति और मनुष्य के बीच सदियों पुराना वार्तालाप है। यह उत्तराखण्ड की कृषि संस्कृति की जड़ों को समेटे हुए आधुनिकता के बावजूद अपनी सुगंध बिखेरता है। जैसे जौ के अंकुर धरती से ऊपर उठते हैं, वैसे ही यह पर्व हमें अपनी मिट्टी और परंपराओं से जुड़े रहने की प्रेरणा देता है।
संदर्भ :
- बेरीमैन, जी.डी. (1973). हिन्दुज़ ऑफ द हिमालयज़।
- पुण्डीर, वी.एस. (2003). फोक ट्रैडिशन्स ऑफ गढ़वाल।
- उत्तराखंड ज्ञानकोष , प्रो DD शर्मा
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