पद्म का वृक्ष को उत्तराखंड के पहाड़ों की लोक संस्कृति में देव वृक्ष कहा जाता है। पहाड़ों में इस वृक्ष का बहुत महत्व है। पद्म के पेड़ की लकड़ी पहाड़ो में चन्दन की लकड़ी के बराबर पवित्र मानी जाती है।
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पद्म का वृक्ष का वैज्ञानिक परिचय –
पद्म का वृक्ष का वानस्पतिक नाम प्रुन्नस सीरासोइडिस है। यह रोजेसी कुल का पौधा है। इस पेड़ का हिंदी नाम पद्म या पदखम है। अंग्रेजी में पद्म के पेड़ को बर्ड चेरी (Bird cherry ) के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड के पहाड़ों में इसे पयाँ ,पया ,पयों आदि नामो से जाना जाता है। इसे हिमालयन चेरी भी कहते हैं।
यह लम्बी उम्र वाला पेड़ होता है। पद्म का वृक्ष प्रकृति का मानव को अनमोल तोहफा है। पया के वृक्ष की पत्तियां ,फूल ,टहनी और छाल भी गुणकारी होती है। यह पेड़ उत्तराखंड के अलावा कश्मीर ,हिमाचल ,भूटान, सिक्किम ,असम ,मणिपुर ,म्यांमार ,पक्षिमी चीन में भी पाया जाता है। नेपाल और उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में इस देववृक्ष का प्रयोग धार्मिक कर्मकांडों के लिए किया जाता है।
पद्म के पेड़ की विशेषता –
पया के पेड़ या पद्म के वृक्ष की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है ,जब पहाड़ो में पतझड़ का मौसम शुरू होता है ,तब इस पेड़ में पत्तियां और फूल आते हैं। उत्तराखंड के लोक सांस्कृतिक जीवन में पया के पेड़ का बहुत महत्व है। अब शादियों के लिए गेट और पालकी तथा मंडप कृत्रिम प्लास्टिक या अन्य उत्पादों के बनाये जाते हैं ,वही पहले पहाड़ी शादी में पया के पेड़ की टहनियों से सजाये जाते थे। पया के पेड़ की लकड़ी को शुद्ध एवं पवित्र माना जाता है इसलिए इसकी लकड़ी का प्रयोग उत्तराखंड में धार्मिक कार्यों में किया जाता है। लोकदेवताओं की धूनी में पवित्र देववृक्ष की लकड़ी का प्रयोग अच्छा माना जाता है।
पर्वतीय आँचल में पौष के प्रत्येक सूर्य की पूजा ऐसी की पत्तियां चढ़ाकर की जाती है। देववृक्ष के नाम से फेमस पद्म वृक्ष की पत्तियां मवेशियों के लिए विशेष लाभदायक होती हैं। मवेशियों के साथ साथ यह वृक्ष मधुमखियों के लिए भी विशेष लाभदायक होता है। जाड़ों के मौसम में मधुमखियों को केवल पद्म वृक्ष के फूलों का पराग ही उपलब्ध हो पाता है।
विलुप्ति के कगार में है देववृक्ष –
पहले बहुते मात्रा में होने वाला पद्म का वृक्ष वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग के चलते धीरे धीरे विलुप्ति की कगार पर खड़ा हो गया है। यदि जाड़ों के मौसम में पद्म वृक्ष नहीं खिलता है तो इसका वातावरण और जनजीवन पर बहुत ही व्यापक प्रभाव पड़ता है। उत्तराखंड की संस्कृति और धार्मिक क्रियाकलापों से जुड़े इस वृक्ष का संरक्षण बहुत जरुरी हो गया है।
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