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झंडा मेला देहरादून का इतिहास- जल्द शुरू होने वाला है देहरादून का प्रसिद्ध झंडा मेला

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झंडा मेला देहरादून का इतिहास

झंडा मेला देहरादून में हर साल होली के पाँचवे दिन मनाया जाने वाला उदासी संप्रदाय के सिखों का धार्मिक उत्सव है।उदासी सम्प्रदाय के अनुयायी, यह उत्सव अपने गुरु श्री गुरु राम राय के दून आने की ख़ुशी में मनाते हैं। बताया जाता है कि सन 1675 में कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन गुरु महाराज देहरादून में आये थे।

कहते हैं, इस उत्सव की शुरुवात गुरु महाराज के जीवनकाल में हो गई थी। मेले की शुरुवात से पूर्व क्षेत्र के उदासियों के द्वारा दरबार के महंत की अगुवाई में विशाल जुलुस निकाला जाता है।इस जुलूस में सारे भक्त शामिल होते हैं। हर तीसरे साल नागसिद्ध वन से लाया गया लगभग 100 फ़ीट ऊँचे ध्वजदंड को बदला जाता है।

इसके बाद  पूजा अर्चना के करके पुराने झंडे जी को उत्तारा जाता है। सेवक दही घी, व गंगाजल से ध्वज दंड को स्नान करवाते हैं। श्री झन्डे जी पर तीन प्रकार के गिलाफ चढ़ाये जाते हैं। सबसे पहले 41 सादे गिलाफ लगाए जाते हैं। फिर बीच में शनील के 41 गिलाफ लगाए जाते हैं। अंत में एक दर्शनी गिलाफ लगाया जाता है। पवित्र जल छिड़कने के बाद भक्त रुमाल और दुपट्टे बांधते हैं। झंडे जी के आरोहण के समय पूरा दरबार सत श्री अकाल! और गुरु राम राय की जय के नारों से गुंजायमान हो जाता है।

झंडा मेला 2024

2024 में झंडा मेला 30 मार्च 2024 से शुरू होगा। देहरादून में पंजाब ,हिमांचल , हरियाणा से बड़ी संख्या में संगते आना शुरू हो गई हैं। दरबार झन्डेजी के लिए गिलाफ सिलाई काम शुरू हो गया है। दरबार के महंत श्री देवेंद्र दास महाराज ने संगतो से झंडे मेले में भाग लेने और पुण्य अर्जित करने की अपील की है।

झंडा मेला देहरादून का इतिहास
झंडा मेला देहरादून का इतिहास

झंडा मेला देहरादून का इतिहास

झन्डेजी का इतिहास लगभग 350 साल पुराना है। श्री गुरु राम राय सिखों के सातवें गुरु श्री गुरु हर राय के पुत्र थे। महाराज जी बचपन से प्रतिभावान और तेजस्वी बालक थे। अटिकन्स कहते हैं, औरंगजेब के दरबार में चमत्कार दिखाने के कारण,औरंगजेब द्वारा उनकी तारीफ करने के कारण उन्हें सिख गुरु परम्परा से वंचित कर दिया गया।

अपने पिता की गद्दी प्राप्त करने में असफल हो जाने के कारण अपने समर्थकों के साथ टौंस नदी के बाएं तट पर कंडाली में अपना डेरा डाला। उसके बाद कृष्ण पक्ष की पंचमी को खुड़बुड़ा नामक स्थान पर अपना डेरा डाला था। गुरु राम राय के डेरे के कारण ही इस दून का नाम डेरादून पड़ा। जो कालान्तर में देहरादून हो गया।

गुरु रामराय जी को औरंगजेब बहुत मानता था। औरंगजेब ने उन्हें हिन्दू पीर की उपाधि दी थी। गुरु राम राय देहरादून में जिस स्थान में ठहरे थे ,वह स्थान गढ़वाल के राजा फतेशाह के राज्य में आता था। फतेशाह औरंजेब के मित्र थे। कहते हैं औरंगजेब ने राजा फतेशाह को आदेश दिया था कि ,गुरु महाराज की जितनी जमीन चाहिए दे दी जाय और उनको किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए।

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औरंगजेब से प्राप्त एक संतुति पत्र के आधार पर ,राजा फतेशाह ने गुरुमहाराज को देहरादून के तीन गांवों (खुड़बुड़ा ,राजपुरा और आमसूरी) की जागीर दी। कहते हैं गुरु राम राय ने 1694 में यहाँ गुरूद्वारे की स्थापना करके झंडा फहराया था। तबसे उसी की स्मृति में प्रतिवर्ष होली के पांचवे दिन ध्वजारोहण करके झंडा मेला मनाया जाता है।

झन्डेजी के मेले का धार्मिक महत्व

झंडा मेला 15 दिन का होता है। इसमें 100 फीट लम्बे स्तम्भ में लाल ध्वजा लगाई जाती है। भक्तों का विश्वाश है कि इस दौरान इस पर लाल या सुनहरी चुनरी बांधने पर भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस पावन पल का साक्षी बनने के लिए दूर -दूर से यहाँ श्रद्धालु आते हैं।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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