Friday, April 18, 2025
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घुघुतिया त्यौहार की कहानी  : कुमाऊं के लोक पर्व घुघुतिया की लोक कथा

घुघुतिया त्यौहार की कहानी  : कुमाऊं के चंद वंशीय शासनकाल में घुघुतिया पर्व से जुड़ी एक विशेष और दिलचस्प कथा है, जो आज भी क्षेत्रीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा मानी जाती है। यह कहानी भले ही एक लोककथा प्रतीत हो, लेकिन कुमाऊं के इतिहास के महान विद्वान बद्रीदत्त पाण्डेय ने अपनी पुस्तक कुमाऊं का इतिहास में इस कथा का जिक्र नहीं किया है, फिर भी यह कथा स्थानीय संस्कृति और परंपराओं में गहरे पैठी हुई है।

घुघुतिया त्योहार की कहानी का वीडियो में यहां देखें :

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कहानी की शुरुआत उस समय से होती है जब कुमाऊं में चंदवंश के एक राजा, कल्याण चंद का शासन था। राजा के कोई संतान नहीं थी, और यह बात उन्हें अत्यधिक चिंता में डाल देती थी। राजा का मंत्री इस परिस्थिति से खुश था, क्योंकि वह सोचता था कि यदि राजा की कोई संतान नहीं हुई, तो राज्य का शासक वह स्वयं बन जाएगा। परंतु राजा के लिए यह चिंता का विषय था, और वह संतान प्राप्ति के लिए कई उपायों पर विचार कर रहे थे।

राजा और उनकी रानी ने अपनी चिंता को लेकर ज्योतिषियों और कुल पुरोहितों से सलाह ली, और आखिरकार एक दिन दोनों बागेश्वर के प्रसिद्ध भगवान बागनाथ के मंदिर पहुंचे। वहां, भगवान भोलेनाथ से पुत्र रत्न की प्राप्ति का आशीर्वाद मांगा। भगवान की कृपा से राजा को संतान की प्राप्ति हुई, और उन्होंने अपने पुत्र का नाम ‘निर्भयचंद’ रखा। रानी ने अपने पुत्र को प्यार से ‘घुघुती’ बुलाना शुरू किया, और यह नाम धीरे-धीरे प्रसिद्ध हो गया।

रानी ने घुघुती को एक मोतियों की माला पहनाई, जिसे घुघुती बहुत पसंद करता था। जब भी घुघुति किसी कारण रानी को परेशान करता था, तो वह उसे डांटते हुए कहती थी, “तेरी माला को कौवों को दे दूंगी!” यह वाक्य उसी प्रकार था, जैसे गांवों में मांएं अपने बच्चों को किसी शरारत के लिए डांटते हुए कहती हैं, “काले कौए, काले कौए, घुघुती की माला खा ले।” घुघुती इन शब्दों से शरारतें छोड़ देता था।

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इस प्रकार, रानी के कहे शब्दों से कौवे आस-पास आने लगे, और घुघुति उन्हें देखकर खेलता था। लेकिन, राजा के मुख्यमंत्री में घुघुती को लेकर द्वेष और ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हो गया। उसे यह डर था कि राजा का पुत्र बड़ा होकर उसका विरोध करेगा, और इस कारण उसने घुघुती को मारने की योजना बनाई।

एक दिन मुख्यमंत्री ने घुघुती को बहला-फुसलाकर जंगल की ओर भेज दिया, जहां उसे मारने की योजना थी। लेकिन, इस दौरान कौवों ने मंत्री की करतूत देख ली। सभी कौवे मंत्री के पीछे-पीछे हो लिए और उसे चोंच मारने लगे। इस झगड़े में घुघुति की माला कौवों के पास आ गई, और वे माला लेकर राजा और रानी के पास आ गए।

कौवों को देख कर राजा और रानी समझ गए कि उनका पुत्र संकट में है। राजा ने तुरंत सैनिकों को भेजकर कौवों का पीछा किया। कौवों ने राजा को उस स्थान तक ले जाकर दिखाया, जहां मंत्री घुघुती को लेकर गया था। वहां राजा ने अपने सैनिकों से मंत्री को पकड़वाया और घुघुती को छुड़ा लिया।

राजा ने कौवों की बहादुरी से प्रसन्न होकर राज्य में यह आदेश जारी किया कि सभी लोग विशेष पकवान बना कर राज्य के सभी कौवों को खिलाएं। यह आदेश सरयू पार और सरयू वार के बीच एक सांस्कृतिक भेद उत्पन्न कर गया, क्योंकि सरयू पार वाले कौवों को यह सूचना एक दिन बाद मिलती थी, इसलिए वे कौवों को एक दिन बाद खिलाते थे, जबकि सरयू वार वाले पहले दिन ही यह परंपरा निभाते थे।

कहते हैं कि इस दिन को पुष्उड़िया या घुघुतिया पर्व के रूप में मनाया जाता है, और इस दिन कौवों को विशेष रूप से दावत दी जाती है। कौवों को बुलाते वक्त लोग एक विशेष गीत गाते हैं: ” काले कावा काले
“पुषे कि रोटी माघे खाले।”

घुघुतिया त्यौहार की कहानी

यह कहानी कुमाऊं की लोक परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक बन चुकी है, और घुघुतिया पर्व को मनाने का तरीका आज भी यह दर्शाता है कि यह पर्व केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धारा का हिस्सा है।

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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