दुबड़ी उत्सव उत्तराखंड के जौनपुर टिहरी मसूरी क्षेत्र का प्रसिद्ध लोक उत्सव या लोकपर्व है। यह इस क्षेत्र का बड़ा त्यौहार माना जाता है। जैसे कुमाऊं क्षेत्र में लाग हरयाव .. लाग बग्वाली…. करके उस क्षेत्र के बड़े उत्सव माने जाते हैं उसी प्रकार दुबड़ी जौनपुर-रवाई क्षेत्र का बड़ा उत्सव माना जाता है। इस त्यौहार के लिए कहा जाता है –
“ पैल आये दुबड़ी त्यार , फिर आये पितरू श्राद्ध , तब आये अशूज अष्टमी ,तब आये माल दिवाली ,तब आये मंगसीर दिवाली “
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जन्माष्टमी के दसवें दिन मनाया जाता है दुबड़ी उत्सव –
अनंत समृद्धि सूचक दूर्वा से संबंधित यह उत्सव कृष्ण जन्माष्टमी के दसवे दिन यानि भाद्रपद अष्टमी के दिन मनाया जाता है। इसे जन्माष्टमी के दसवे दिन मनाये जाने का कारण यह है कि ,यहाँ की परम्परागत मान्यता के अनुसार घर दस दिन के जातक शौच के बाद अपवित्र रहता है और ग्यारहवें दिन दूब देकर पवित्र किया जाता है। क्योंकि भाद्रपद की कृष्णपक्ष की अष्टमी अर्थात जन्माष्टमी को भगवान् कृष्ण का जन्म होने के कारण घर में जातक शौच होता है। इसलिए यहाँ उत्सव नहीं मनाया जाता है। दसवे दिन दूर्वा से गंगाजल और गौमूत्र छिड़ककर घर को शुद्ध किया जाता है ,और इसके बाद यह उत्सव मनाया जाता है।
पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार यह उत्सव कन्याओं को समर्पित है। जन्माष्टमी के दिन वासुदेव के घर हुई कन्या की ख़ुशी में यह उत्सव मनाया जाता है। यह उत्सव विशेषकर कन्याओं के सम्मान को समर्पित है। पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार इस क्षेत्र में जन्माष्टमी के दिन जिस गांव में कन्या का जन्म होता है दुबड़ी उत्सव उसी गांव में मनाया जाता है। यदि जन्माष्टमी या दुबड़ी पर किसी कन्या की मृत्यु हो जाती है तो उस गांव में दुबड़ी उत्सव तब तक बंद हो जाता है ,जब तक जन्माष्टमी या दुबड़ी के दिन वहां किसी कन्या का जन्म नहीं होता।
अन्य मान्यताओं के अनुसार यह फसल की समृद्धि और प्रकृति को समर्पित त्यौहार है। जिसे समस्त ग्रामवासी मिलजुल मनाते है।
कैसे मनाया जाता है दुबड़ी उत्सव –
दुबड़ी उत्सव मनाने के बारे कहते हैं कि , इस दिन गांव के सामूहिक स्थान में लगभग पंद्रह फ़ीट गहरा और पांच फ़ीट गहरा गड्डा खोदा जाता है। इसमें एक लम्बे डंडे के सहारे ऋतू फसलों को ( मक्का ,कौणी ,झंगोरा ,कोदा ,) और मौसमी फल सब्जियों को गाढ़ा जाता है। इन्हे एक सफ़ेद कपडे से अच्छी तरह से लपेट कर रखा जाता है। शाम को गांव की कुवारी कन्यायें इसमें दूध ,हलवा पूरी पकौड़ी चढाती हैं। इस समय गांव के लोक वाद्य बजाने वाले लोक वाद्य बजाते रहते हैं।
महिलाएं दुबड़ी के गीत गाती हैं। घर से लाये पकवान लोगों में बाटें जाते हैं। सभी वृद्ध नर नारी और बच्चे अपने -अपने स्थान पर बैठकर कार्यक्रम का आनंद लेते हैं। इस अवसर पर कहीं कहीं हरियाली भी बोई जाती है। इस हरियाली को एक दूसरे के कानो में रखकर ,एक दूसरे को शुभकामनायें दी जाती हैं। इस अवसर पर मंडाण नृत्य और लोक गीत और लोक नृत्यों का आयोजन भी होता है। दुबड़ी उत्सव पर कहीं कही नागदेवता की डोली को भी नचाया जाता है।
दुबड़ी उत्सव की पूजा समाप्त होने के बाद उस स्थान पर एकत्रित युवक सीटियां बजाते हुए बोये अन्नों को उखाड़ने के लिए गड्डे में कूद जाते हैं। लोकवाद्यों की आवाज तेज हो जाती है। किलकारियों , गीतों और दैवी आवाहनो से सारा चौक गुज उठता है। गड्डे से लायी फसलों को लोग फसलों के रूप में ग्रहण करते हैं। दुबड़ी के दूसरे दिन मण्डाण होता है।
जौनसार में दुबड़ी में लोकवाद्यों के साथ खेतों में जाकर , उनकी परिक्रमा करके वहां से मुट्ठी भर पौधें लाते हैं। उन्हें आँगन में एक स्थान पर रोप दिया जाता है। फिर उनकी पूजा की जाती है। पूजा के उपरांत उन्हें गोबर से द्वारों पर चिपका दिया जाता है। इस अवसर पर युवकों में रस्साकस्सी का आयोजन भी किया जाता है और हार जीत का उत्सव मनाया जाता है।
संदर्भ – प्रो DD शर्मा जी की पुस्तक उत्तराखंड ज्ञानकोष।
वीडियो – यूकेपीडीया यूट्यूब
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