Thursday, May 15, 2025
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डिकर पूजा से पूर्ण होता है उत्तराखंड का हरेला त्यौहार !

हरेला पर डिकर पूजा –

डिकर का मतलब है पूजा के लिए मूर्ति या वनस्पतियों से बनाई गई दैवी मूर्तियां। इनका निर्माण मुख्यतः कुमाऊं मंडल में हरेला त्यौहार, और सातू-आठु, जन्माष्टमी पर किया जाता है। कुमाऊं के पुरोहित वर्गीय समाज में हरेले को शिव-पार्वती के विवाह का दिन माना जाता है। अतः इस दिन शिव परिवार के सभी सदस्यों के मिट्टी के डिकरे बनाकर उन्हें हरियाले के पूड़ों के बीच में स्थापितकरके उनका विधिवत पूजन किया जाता है। इसी प्रकारश्री कृष्ण जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण, गायें, गोवर्धन पर्वत आदि के डिकरे बनाकर पूजे जाते हैं।

डिकर पूजा

कैसे बनाये जाते हैं हरेले के लिए डिकारे:-

हरेले के डिकारे बनाने के लिए ,चिकनी मिटटी, रुई और पानी के मिश्रण को कूट कूट कर उसे लचीला बना लिया जाता है। ततपश्चात बाद उसे मूर्ति के सांचे में रखकर, भगवान शिव, पार्वती गणेश और उनके परिवार की मूर्तियां बनाई जाती है। मूर्ति को छाया में सुखाया जाता है। जिन्हे चावल आदि के लेप लगाकर, लेप सूखने के बाद इनके हाथ और पैर बनाये जाते हैं। मूर्ति के शरीर पर रंग भरकर, बारीक़ सींक से आँख और कान बनाये जाते हैं।

बाद में वस्त्र आभूषणों के रंग भर दिया जाता है। इस तरह हरेला की पूर्व सांध्य पूजन के लिए इन मूर्तियों को डीकारे कहा जाता है। हरेले की पूर्व संध्या को, हरेला के बीच में रखकर इनकी भी पूजा की जाती है। इसे डिकार पूजा, या डिकरे  की पूजा भी कहते हैं।

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सातू आठू के लिए डिकर पूजा

ऐसे ही भाद्रपद मास में अमुक्ताभरण सप्तमी एवं विरुड़ाष्टमी (सातूं-आठू) के अवसर पर कुमाऊं के पूर्वोत्तरी क्षेत्र, सोर-पिथौरागढ़ में महिलाएं व्रती रहकर साँवाधान्य अथवा मकई की हरी बालड़ियों और पत्तों को आपस में गूंथकर तथा सफेद वस्त्र से उनकीमुखाकृति आदि का निर्माण कर गौरा (पार्वती) तथा महेश्वर (शिव) के डिकरे बनाकर तथा शिव के dikre के साथ डमरू, त्रिशूल, चन्द्रमा आदि के प्रतीकों तथा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित गौरा के की पूजा अर्चना करती हैं।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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