उत्तराखंड का समाज मुख्यतः कृषक व् पशुपालक ही रहा है। आदिकाल से ही उत्तराखंड के निवासी मुख्यतः प्रकृति प्रेमी रहे हैं। पहाड़ की सीढ़ीदार खेतों और जल जंगल के बाद पशु उत्तराखंडियों की अमूल्य संपत्ति रहे हैं। पहले से ही दुधारू गाय /भैंस के साथ बैलों की जोड़ी का पहाड़ियों के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।
वर्तमानं में पहाड़वासियों ने पशुपालन थोड़ा कम कर दिया है। लेकिन अधिकतर लोग अभी भी अपनी पारम्परिक जीवन शैली अपनाये हुए हैं। पशुओं के लिए अगाध स्नेह होने के कारण पहाड़वासियों ने अपने और प्रकृति के साथ -साथ पशुओं के लिए भी कई लोकोत्सव बनाये हैं। जिनमे खतड़ुवा ,ईगास ,बल्दिया एकास आदि लोकोत्सव प्रमुख हैं।
हरिबोधिनी एकादशी या कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन जहाँ उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में ईगास पर्व मानते हैं, जिसमे मूलतः दिन में पशुओं की सेवा की जाती है। रात को पारम्परिक दीवाली के रूप में भैल्लो खेलते हैं। इसी प्रकार हरिबोधनी एकादशी के उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में बल्दिया एकास नामक लोकोत्सव के रूप में मनाई जाती है। इस दिन बैलों के हल जोतने की छुट्टी रहती है।
इस दिन बैलों को अच्छा भोजन और अच्छी ताज़ी घास दी जाती है। उनके सींगों में तेल से मालिश की जाती है। उनके सींगो को फूल मालाओं से सजाया जाता है। इस दिन सभी गाय ,बैलों को जौ के पिसे हुए पेड़े खिलाये जाते है। इस दिन उत्तराखंड के जौनपुर क्षेत्र में भी अपने पशुओं की सेवा की जाती है, उन्हें दही चावल खिलाये जाते हैं।
अतः कह सकते हैं कि हरिबोधनी एकादशी के दिन सम्पूर्ण उत्तराखंड में पशुओं को समर्पित लोकोत्सव मनाये जाते हैं। जिनके नियम व् परम्पराएं स्थानीय स्तर पर अलग – अलग होती हैं।
इसके अतिरिक्त कुमाऊं क्षेत्र में बूढ़ी दीवाली के रूप में भी मनाई जाती है। इस दिन दरिद्रता के प्रतीक भुईयां को बाहर निकाला जाता है।
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