जौ संक्रांति उत्तराखंड का एक प्रमुख कृषक ऋतु उत्सव है, जो उत्तराखंड के संक्रांति उत्सवों से जुड़ा हुआ है। यह पर्व प्रकृति और कृषि के प्रति धन्यवाद व्यक्त करने और आगामी फसल के लिए शुभकामनाएं मांगने का प्रतीक है। हालाँकि अब इसे बसंत पंचमी या श्री पंचमी के साथ जोड़ा जाने लगा है, लेकिन इसका वास्तविक स्वरूप इसे एक मौलिक संक्रांति पर्व के रूप में स्थापित करता है।
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जौ संक्रांति का कृषि और ऋतु से संबंध
जौ त्यार बसंत ऋतु के आगमन और जौ (बाली) की फसल के अंकुरण का उत्सव है। इस समय खेतों में लहलहाते जौ के अंकुर किसानों के हृदय को प्रसन्नता से भर देते हैं। पहाड़ के किसान अपनी फसल की समृद्धि के लिए अपने कुल देवताओं और ईष्ट देवताओं का धन्यवाद करते हैं। साथ ही, फसल को प्राकृतिक और कृत्रिम संकटों से बचाने के लिए प्रार्थना करते हैं।
पारंपरिक रीति-रिवाज :
जौ त्यार के दौरान कोमल जौ की पत्तियाँ कुल देवताओं को अर्पित की जाती हैं और इसे प्रसाद के रूप में परिवारजनों में वितरित किया जाता है। ये पत्तियाँ परिवार के प्रत्येक सदस्य के सिर पर रखी जाती हैं ताकि उनके जीवन में मंगल और रक्षा बनी रहे।
लड़कियाँ जौ की पत्तियाँ अपने बड़ों को अर्पित करती हैं और उनसे आशीर्वाद एवं दक्षिणा प्राप्त करती हैं। पुरुष अपनी टोपी पर इन पत्तियों को सजाते हैं, जबकि महिलाएँ इन्हें अपने जुड़े (धमेली) में लगाती हैं। इसके अलावा, घर के दरवाजों पर गाय के गोबर से जौ की पत्तियाँ लगाई जाती हैं, जिससे पूरे घर की रक्षा और शुभकामना होती है।
जौ संक्रांति पर शुभ कार्य :
जौ त्यार को अत्यंत शुभ दिन माना जाता है। इस दिन निम्नलिखित कार्य बिना मुहूर्त देखे किए जाते हैं:
1. कान और नाक छिदवाने की रस्म , बालिकाओं के लिए।
2. यज्ञोपवीत संस्कार (जनेऊ) बालकों के लिए।
3. शादी की सगाई और तिथि निर्धारण।
कुमाऊँ मंडल में, जौ त्यार के दिन से बैठकी होली की शुरुआत होती है, जो बसंत ऋतु का स्वागत करने का एक अनोखा तरीका है।
जौ संक्रांति का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व :
जौ संक्रांति उत्तराखंड की कृषक संस्कृति की मौलिकता का प्रतीक है। यह पर्व केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ इंसान के अटूट संबंध को दर्शाता है। यह पर्व सामाजिक एकता, पर्यावरण संरक्षण और कृषि के महत्व को रेखांकित करता है।
निष्कर्ष :
जौ त्यार उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का एक अनमोल हिस्सा है। इस पर्व को मनाने से न केवल परंपराओं का संरक्षण होता है, बल्कि अगली पीढ़ी को भी हमारी लोक संस्कृति की गहराई समझने का अवसर मिलता है। यह पर्व प्राकृतिक सुंदरता, कृषि, और सांस्कृतिक विविधता का अद्भुत संगम है, जो हर किसी के लिए प्रेरणा स्रोत बन सकता है।
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संदर्भ – प्रो DD शर्मा जी की पुस्तक उत्तराखंड ज्ञानकोष से साभार
फोटो- मिनाकृति ऐपण प्रोजेक्ट साभार