Friday, April 25, 2025
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बिना तिमुंडिया देवता की पूजा, अधूरी मानी जाती है बद्रीनाथ की यात्रा

सारांश ( Summary ) :

जोशीमठ में स्थित तिमुंडिया देवता का मंदिर नरसिंह और वासुदेव मंदिर के पास स्थित है। इन्हें देवी दुर्गा का वीर गण माना जाता है। लोककथा के अनुसार, त्रिमुंड्या एक उग्र तामसिक शक्ति थी जिसे देवी ने नियंत्रित कर इस स्थान पर स्थापित किया। तब से वासुदेव और नरसिंह की पूजा से पहले इनकी पूजा अनिवार्य मानी जाती है।

बद्रीनाथ के कपाट खुलने से पहले त्रिमुंड्या देवता तिमुंडिया देवता का मेला (जागर ) आयोजित होता है जिसमें बकरे की बलि, चावल, गुड़ और मदिरा अर्पित की जाती है। देवता का पस्वा (माध्यम) देवत्व प्राप्त कर उग्र नृत्य करता है और रक्त, मांस व कच्चा चावल खाता है।

यह अनुष्ठान तिमुंडिया देवता की तामसिक शक्ति को शांत करने के लिए किया जाता है ताकि वह बद्रीनाथ यात्रा में कोई विघ्न न डाले। त्रिमुंड्या देवता की पूजा उत्तराखंड की गहन लोक आस्था, देवी शक्ति और तामस से सात्विक की ओर यात्रा का प्रतीक है।

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विस्तार : तिमुंडिया देवता की उत्पत्ति और पौराणिक कथा –

त्रिमुंड्या देवता की कथा घंटाकर्ण यक्ष से शुरू होती है, जो कल्पेश्वर (उर्गम) में उत्पात मचा रहे तीन सिर वाले दैत्य को शांत नहीं कर पाया। तब उसने नवदुर्गा की आराधना की। देवी दुर्गा ने उस दैत्य को बांध लिया और उसे जोशीमठ में लाकर नरसिंह मंदिर के प्रांगण में स्थापित कर दिया। तभी से वहाँ पर त्रिमुंड्या देवता की पूजा प्रारंभ हुई।

इस पूजा का उद्देश्य उस तामसिक शक्ति को नियंत्रित करना था, जिसे देवता के रूप में स्वीकार कर लिया गया। यह परंपरा ठीक उसी प्रकार है जैसे चम्पावत के क्रांतेश्वर की पूजा से पहले घटोत्कच और हिंगला देवी की पूजा की जाती है।

तिमुंडिया देवता और शिव-वैष्णव संघर्ष की लोककथा –

लोकपरंपरा में कहा जाता है कि जब शैवों को बदरीनाथ के तप्तकुंड से हटा दिया गया, तो शिव ने कैलाश के समीप कल्पनाथ में वास चुना। लेकिन उनका एक गण — घंटाकर्ण — वैष्णव हो गया और वहीं रहने लगा। इससे शिव उग्र हो गए और एक तामसिक, त्रिमुंडिया रूप में प्रकट हुए। यह रूप न बद्रीनाथ को सह्य था और न ही वहाँ की प्रजा को। अंततः उन्हें जोशीमठ में नरसिंह और वासुदेव मंदिर के पास स्थान दिया गया और उनकी पूजा की व्यवस्था की गई।

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तिमुंडिया देवता का मेला –

बद्रीनाथ के पट खुलने से पहले, नियत मुहूर्त से एक सप्ताह पूर्व शनिवार या मंगलवार की संध्या को तिमुंडिया देवता का जागर आयोजित होता है। इस दौरान चावल, गुड़ और एक काले बकरे की भेंट चढ़ाई जाती है। मान्यता है कि यह अनुष्ठान त्रिमुंड्या को प्रसन्न करने हेतु किया जाता है ताकि वह तीर्थयात्रियों की यात्रा में विघ्न न डाले।

लोगों का कहना है कि जागर के दौरान त्रिमुंड्या का पस्वा (देवता का माध्यम) अद्भुत शक्ति प्राप्त कर लेता है — वह कच्चा मांस, चावल और गुड़ खाता है और इस पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।

देवी दुर्गा और राक्षस का युद्ध –

एक जनश्रुति यह भी कहती है कि एक समय देवी दुर्गा अपने डोले में भ्रमण के लिए निकली थीं। जब वे वेमरू गांव पहुँचीं, तो वहां के लोग बाहर नहीं आए। पता चला कि एक राक्षस लोगों को आतंकित कर रहा था और प्रतिदिन एक व्यक्ति को बलि स्वरूप मांगता था। उस दिन समय पर बलि न मिलने पर वह गांव की ओर आया और देवी दुर्गा से उसका घमासान युद्ध हुआ। अंततः राक्षस ने देवी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और वही त्रिमुंड्या देवता के रूप में पूजित हुआ।

तिमुंडिया देवता का नृत्य और अलौकिक अनुष्ठान –

नरसिंह मंदिर के प्रांगण में जब त्रिमुंड्या देवता का जागर होता है, तो उनका माध्यम — एक पुरुष जो धोती पहने, नंगे बदन होता है — ध्यान में लीन बैठता है। जैसे ही वाद्य यंत्र बजते हैं और देवी का गाथागान प्रारंभ होता है, उसके शरीर में कम्पन शुरू होता है। यह त्रिमुंडिया देवता के अवतरण का संकेत माना जाता है।

फिर वह चंवरों से युक्त दण्ड उठाता है और प्रांगण में घूमने लगता है। कुछ ही क्षणों में वह उग्र रूप धारण कर लेता है — जिह्वा लपलपाना, भयंकर गर्जना, उछल-कूद करना। फिर लाया जाता है एक काला बकरा, जिसे हल्का काटा जाता है और देवता का माध्यम उसका रक्त पीता है।

इसके बाद वह बकरे का कलेजा चबा जाता है, एक टांग खाता है, चावल और गुड़ से भरी टोकरी को मुंह में डालता है और फिर अंत में आधा बाल्टी पानी पीता है। संपूर्ण अनुष्ठान के पश्चात वह नृसिंह मंदिर के समक्ष प्रणाम करता है और स्नान कर वस्त्र धारण करता है।

त्रिमुंड्या देवता का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व –

तिमुंडिया देवता को केवल एक भयावह देवता समझना भूल होगी। वह शक्ति के नियंत्रित स्वरूप हैं — तामस से सात्विक की ओर यात्रा का प्रतीक। उनकी पूजा के माध्यम से समाज यह मानता है कि सबसे उग्र रूप को भी पूजा, अनुशासन और संस्कृति द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।

निष्कर्ष :

जोशीमठ का त्रिमुंड्या देवता न केवल एक अनोखी लोकश्रद्धा हैं, बल्कि उत्तराखंड की गहन सांस्कृतिक परतों का जीवंत प्रतीक भी हैं। उनकी पूजा, कथा और अनुष्ठान हमें यह सिखाते हैं कि किस प्रकार लोक मान्यताएँ एक सामूहिक स्मृति और शक्ति के प्रतीक में बदल जाती हैं।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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