आज रोचक कथाओ की कड़ी में आज हम आपके सामने ला रहे है। एक ऐसे नायक की कहानी, जो जन्म से ब्राह्मण था, और कर्म से महायोद्धा था। जिसको कुमाऊँ का रॉबर्ट ब्रूश कहा जाता है। जी हां हम आज आपको कुमाऊँ का महान योद्धा पुरुषोत्तम पंत उर्फ पुरखू पंत की कहानी बताने जा रहे हैं।
लगभग 1560 – 1568 के की बात है। कुमाऊँ के पिथौरागढ़ क्षेत्र की तरफ चंद वंशीय राजा बालो कल्याण चंद का राज था। बालो कल्याण चंद बहुत ही वीर राजा था। वह अपनी सीमाओं का विस्तार करना चाहता था। वह अपने ससुराल सिराकोट(सिरागड़ ) को भी जितना चहता था। एक दिन उसने अपनी रानी के काहा ,मैं सिराकोट (सिरागड़ ) को भी जीतना चाहता हूं। मैं वहाँ भी अपना परचम लहराना चाहता हूं। किंतु यह आसान नही है।
राजा अपनी सेना मजबूत करने लगा। किन्तु इस बीच एक दुखद घटना घटी , 1568 ई में , राजा बालोचन्द का निधन हो गया। और उनका सिराकोट जीतने का सपना, सपना ही रह गया। राजा के सपने को पूरा करने के लिए रानी ने भी सती होने का विचार त्याग दिया। रानी ने प्रण किया, कि जब तक उनका बेटा सिराकोट नही जीत लेता, तब तक वो सती नही होगी। उस समय राजा का बेटा रुद्रचंद छोटा था।
रानी ने राज पाठ सम्हाला, और रुद्रचंद को बचपन से अस्त्र शास्त्रों की विद्या में निपुण कर दिया था। रुद्रचंद भी वीर था। जब रुद्रचंद युवा हो गए । तब शुभ समय देख रानी ने उसे अपने कमरे में बुलाया। उससे रानी ने कहा, कि हे पुत्र , तुम अब युवा हो गए हो , और तुम्हे अपने स्वर्गीय पिता की आखिरी इच्छा अब जान लेनी चाहिए। (कुमाऊँ का महान योद्धा)
रानी ने रुद्रचंद से कहा कि तुम्हारे पिता सिराकोट ( सिरागड़ ) को जीतना चाहते थे। मगर उनकी यह इच्छा पूर्ण ना हो सकी । उनकी यह इच्छा अब तुम पूर्ण करोगे।रुद्रचंद तुरन्त तैयार हो गया , उसने अपनी माँ से कहा, माँ आप चिंता ना करो, मैं पिता श्री की आखिरी इच्छा जरूर पूरी करूँगा।
रुद्रचंद अपनी सेना लेकर सिराकोट की तरफ कूच कर गया , मगर वहाँ के राजा हरिमल के सामने रुद्रचंद की एक भी ना चली, राजा रुद्रचंद को अपनी जान बचा कर आना पड़ा।रुद्रचंद ने कई बार सिराकोट पर आक्रमण किया, परन्तु हर बार उसे मुह की खानी पड़ी। वह बहुत उदास हो गया।
एक बार सिराकोट से लौटते समय उसने देखा, कि एक मकड़ी जाल बन रही है, लेकिन वो हर बार टूट जाता। मकड़ी भी बार बार प्रयास कर रही थी। आखिर में मकड़ी जाल बनाने में सफल रही। अब रुद्रचंद ने भी फैसला किया, कि वह जब तक सिराकोट ( सिरागड़ ) नही जीत लेता तब तक पीछे नही हटेगा।
राजा रुद्रचंद अपने दरबार मे गए, और अपने खास दरबारियों को बुलाया और कहा, क्या हमारे राज्य में कोई ऐसा वीर नही है, जो सिराकोट जीत सके? हमारा इतना बड़ा ठाकुरों ( राजपूतो ) वाला राज्य है। हमारे राज्य में कोई तो , होगा जो राजा हरिमल को हरा सके?
इतने में एक दरबारी ने कहा, महाराज एक ब्राह्मण है, हमारे राज्य में , जो बहुत ही वीर , साहसी और शक्तिशाली होने के साथ साथ, चतुर एवं बुद्धिमान भी है। वह सिराकोट ( सिरागड़ ) जितने में हमारी मदद कर सकता है। उसका नाम पुरुषोत्तम पंत है।उसे पुरखू पंत भी कहते हैं। राजा ने उसके घर दूध दही भेज कर के उसे दरबार
आने का निमंत्रण भेजा गया। मगर पुरखू पंत भी चालाक ब्राह्मण था, वो भी बहाने बनाता रहता है, और राज दरबार मे नही पहुचता। दरबारियों ने राजा को बताया कि पुरखू पंत के पास अन्न धन की तथा, दूध दही कि कोई कमी नही है। इसलिए वो इन चीजों के लालच में नही आ रहा और, दरवार में आने के लिए आनाकानी कर रहा है। राजा ने पुरखू पंत को पत्र भेजा, राजा की आज्ञा की अवमानना के जुर्म में तुम पर 1 हजार का जुर्माना किया जाता है। तुरंत जुर्माना लेकर राज महल पहुँचो।
जुर्माने वाला पत्र देख कर पुरुषोत्तम पंत की हालत खराब हो गई। वे भागे भागे राज दरबार पहुचे । पुरखू पंत ने दरबार मे कहा, ” महाराज मुझसे गलती हो गई , मेरे पास इतना पैसा तो नही है। लेकिन आप मेरे प्राण लेकर जुर्माना पूरा कर सकते हैं। राजा ने कहा, कि पुरखू पंत मुझे तुम्हारे प्राण नही चाहिए। मुझे सिराकोट (सिरागड़ ) चाहिए । मैंने तुम्हारी वीरता के बारे में बहुत सुना है। मेरा सेनानायक बनकर मुझे सिरागड़ जीत के दे दो।
इस बात पर पुरखू उत्त्साहित होकर बोला, महाराज सिराकोट तो क्या मैं बधानगण भी जीत कर दिखाऊंगा। बस आप मुझे मौका दीजिये।पुरखू पंत ने 3 बार सिराकोट पर आक्रमण किया, तीनो बार उसे हार मिली । तीसरी बार हारने के बाद जब वो निराश होकर जंगल मे आराम कर रहे थे, तब उन्होंने देखा,एक कीड़ा गोबर का गोला बना कर चढ़ाई चढ़ रहा था, मगर गिर जा रहा था।
मगर उसने हार नही मानी, आखिर में वो कीड़ा, गोबर का गोला लेकर, चढ़ने में सफल रहा। पुरखू पंत ने मन ही मन सोचा, हार तो मैं भी नही मानूंगा। अब पुरखू पंत को भूख लगी थी, उसने पास के गाव में जाकर, एक बुढ़िया से खाना मांगा, बुढ़िया ने उसको चावल परोस कर दे दिए।
अब पुरखू पंत पत्ते के बीच मे से चावल खाने लगे, इस कारण पत्ते के किनारे वाला भात ( चावल) नीचे गिरने लगा। बुढ़िया ने पुरखू पंत को बोला, तुझे भात खाना नहीं आता और पुरखू पंत को ज्ञान नही है। (अक्ल नही है ) अब बुढ़िया को नही पता था, कि वही पुरखू पंत है। पुरखू ने बुढ़िया से पूछा, आमा (दादी ) कोन सी गलती कर रहा पुरखू पंत ? और मैं क्या गलती कर रहा हूँ ? तब आमा बोली, ( कुमाउनी में दादी को आमा कहते हैं ) “तुझे भात खाना नही आता, भात हमेशा, एक किनारे से खाया जाता है।
और वैसे ही , पुरखू को लड़ाई जीतना नही आता, वो भी तुम्हारी तरह सीधे बीच मे घुस जा रहा,उसको भी एक किनारे से शुरू करना चाहिए। पुरखू पंत को सिराकोट की पानी की सुरंग जहाँ से शुरू होती है, वहाँ अपनी सेना रखनी चाहिए। सिराकोट का पानी बंद कर देना चाहिए। और जोहार से आने वाली रशद भी बंद कर देंनी चाहिए। जब तक सिराकोट,(सिरागड़ ) में पानी और राशन जाता रहेगा, तब तक उसे कोई नही जीत सकता। बस क्या था, अब पुरखू पंत को सिराकोट जीतने का उपाय पता चल गया। उसने आमा के पाव छुए, आशीर्वाद लिया, और आकर अपनी सेना तैयार करने लगे।
पुरखू पंत ने वैसा ही किया , जैसा आमा ने बताया था।सिराकोट, अन्न जल नही पहुच पाया, तो सिराकोट कमजोर पड़ गया, और पुरुषोत्तम पंत ने सिराकोट जीत लिया। और वहां का राजा हरिमल भाग कर , काली नदी पार , डोटी राज्य में चला गया। अस्कोट , दारमा और जोहार भी, अब राजा रुद्रचंद के राज्य में मिल गए। राजा रुद्रचंद खुश हुआ, आखिर उसके पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण हुई।
राजा रुद्रचंद ने पुरखू पंत को , कुछ गांव की जागीरदारी और एक ताम्र पत्र ईनाम में दिया। और उनको बधानगड़ जीतने की प्रतिज्ञा याद दिलाई। बधानगड़ पिंडर घाटी में था, जो गढ़वाल के राजा दुलाशाह की विशेष चौकी थी। वहाँ सोमेश्वर और बैजनाथ होकर पहुचा जा सकता था। बैजनाथ क्षेत्र में कत्यूरी राजा , राजा सुखलदेव का शाशन था। राजा सुखलदेव चंद राजाओं की बढ़ती शक्ति से घबराया हुआ था। इसलिए उसने गढ़वाल के राजा दुलाशाह से मित्रता कर ली। दुलाशाह को भी पता था, अकेले पुरखू पंत से निपटना मुश्किल है। उसने भी सुखलदेव का निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
इधर अपनी दूसरी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए पुरखू पंत अपने भाइयों, गंगोली के शूरवीरों और सैनिको के साथ बधानगड़ के लिए निकल गया। पुरखू पंत का पहला युद्ध कत्यूरी सेना के साथ हुवा, जैसा पहले से विदित था, कत्यूरी सेना पुरखू के अदम्य साहस , और युद्धकौसल के सामने नही टिक सकी। कत्यूरी सेना हार गई। पुरखू पंत को बधानगड़ जीतने की लगी थी, वो सेना लेकर आगे बढ़ गए। बधानगड़ में राजा दुलाशाह ने पड्यार राजपूतों की सेना भेज रखी थी। आगे जाते ही कत्यूरियों ने पुरखू की सेना की रसद रुकवा दी। और आगे से पड्यार सेना थी। पुरखू की चंद सेना बीच में फस गई।
चंद सेना और पड्यार सेना के बीच भयँकर लड़ाई शुरू हो गई। राजा रुद्रचंद को बधानगड़ जीतना महंगा पड़ा, और एक पड्यार राजपूत का भाला पुरखू पंत के सीने में लगा और पुरुषोत्तम पंत को वीरगति प्राप्त हुई। पुरखू पंत का सिर, पड्यार सेना काट कर गढ़वाल श्रीनगर लेकर गई। क्योंकि राजा दुलाशाह का यही आदेश था।पड्यार नेे पुरखू के सिर को ले जाते समय जहाँ जहाँ भी विश्राम किया, उस जगह को राजा दुलाशाह ने सैनिको को रौत में दे दिया। मतलब वो गांव पड्यार सेना को जागीर में दे दिए थे।
इसका सीधा मतलब ये हुवा, कि पुरुषोत्तम पंत की वीरता और साहस का ख़ौप पूरे उत्तराखंड के राजाओं में था। ऐसा था, उत्तराखंड कुमाऊ का हीरो पुरखू पंत।
निवेदन – मित्रों उपरोक्त लेख में हमने उत्तराखंड कुमाऊ का महान योद्धा पुरखु पंत के बारे में एक रोचक कथा एवं जानकारी देने की कोशिश की है। उपरोक्त कहानी के स्रोत, पुस्तक – कुमाऊँ का इतिहास, कुमाऊं की अन्य किताबो से लिया गया है। यदि आपको इसमे कोई त्रुटि लगती है, तो हमारे फ़ेसबुक पेज देवभूमि दर्शन पर मैसेज करके बता सकते हैं।
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