Friday, April 11, 2025
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गढ़वाली टोपी या कुमाउनी टोपी का इतिहास और ऑनलाइन खरीदने के विकल्प

आजकल ब्रह्मकमल वाली गढ़वाली टोपी (Garhwali cap) और कुमाऊनी टोपी (Kumauni Cap ) काफी प्रचलन में चल रही हैं। यह परिवर्तन बीते एक दो सालों से हो रहा है। जब से गणतंत्र दिवस के अवसर पर माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने इसे धारण किया था। वैसे तो इसे गाँधी टोपी कहते हैं लेकिन इसमें ब्रह्मकमल का लोगो लग जाने के बाद ये पारम्परिक गढ़वाली टोपी (Garhwali cap ) और कुमाऊनी टोपी बन गई। हालांकि कुमाऊँ -गढ़वाल में वृद्ध लोग गाँधी टोपी धारण करते हैं और युवा वर्ग इससे पहले पहाड़ी टोपी के नाम पर हिमाचल की पारम्परिक गोल पहाड़ी धारण करते थे।

जिस गाँधी टोपी को लोग कुमाऊं -गढ़वाल की पारम्परिक टोपी बता रहे हैं असल में वो टोपी भी कुमाउनी और गढ़वाली संस्कृति की पारम्परिक टोपी नहीं है। हिमालयी क्षेत्र के कुमाऊं -गढ़वाल के निवासी प्राचीन काल में एक डांटा बांधते थे सर पर किसी प्रकार की टोपी का प्रयोग नहीं होता था। अब सवाल ये उठता है कि पहाड़ी टोपी क्या है ? और पहाड़ी टोपी उत्तराखंड में कहाँ से आई ?

कुमाऊं -गढ़वाल की पहाड़ी टोपी कहाँ से आई ? गढ़वाली टोपी और कुमाऊनी टोपी का इतिहास क्या है ?

अब अगला सवाल यह है,कि यह पहाड़ी टोपी कहाँ से आई ? ये टोपी कुमाउनी गढवाली संस्कृति से कैसे जुड़ी ?  उत्तराखंड के पहाड़ियों की अपनी कोई टोपी नही होती थी। उत्तराखंड के पहाड़ी लोगो का डांटा होता था, जो एक प्रकार की पगड़ी होती है। जिसे प्राचीन काल के राजा महाराजा और अन्य लोग धारण करते थे।

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पहाड़ी टोपी की उत्तराखंड की संस्कृति में जुड़ने की एक संभावना तब पैदा होती है,जब आदिगुरु शंकराचार्य उत्तराखंड आये। आदिगुरु शंकराचार्य के साथ कई मराठी ब्राह्मण भी उत्तराखंड आये जो यही बस गए। और उनका पहनावा टोपी धीरे धीरे उत्तराखंड की संस्कृति में अंगीकृत हो गया। जैसा कि हम सब को ज्ञात है कि इसी प्रकार की गढ़वाली टोपी महाराष्ट्र राज्य में मराठी समुदाय के लोग करते हैं।

अब आगे बढ़ते हुए उत्तराखंड के नवीन इतिहास में देखते हैं, तो गोरखा शाशन से भी ये टोपी नही जुड़ी है। क्योंकि गोरखा समाज की टोपी थोड़ा अलग होती है। फिर आगे बढ़ते हुए हम आते हैं भारत मे अंग्रेजी शाशन काल मे। हां यहाँ हमारे सवाल का जवाब मिल सकता है। अंग्रेजी शाशन काल मे स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े आंदोलनकारी या कह सकते हैं कि भारत की आजादी में सबसे बड़ा योगदान पूजनीय महात्मा गांधी जी का था। जो कि इतिहास के पन्नो में वर्णित है।

ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार गाधी जी के समर्थक इसी प्रकार की टोपी पहनते थे ,जिसे गांधी टोपी कहा जाता है।एक जानकारी के अनुसार , रामपुरी टोपी को ही गांधी टोपी कहा जाता है। कहते हैं 1931 में जब महात्मा गांधी रामपुर मुहम्मद अली जौहर से मिलने गए तो ,उनके परिवार जनों ने एक हस्तनिर्मित टोपी बापू को उपहार स्वरूप दी। बाद में यही टोपी गाँधी टोपी के नाम से जानी गई।

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गढ़वाली टोपी या कुमाउनी टोपी का इतिहास और ऑनलाइन खरीदने के विकल्प

चूंकि उस समय उत्तराखंड के लोग और जन नेता महात्मा गांधी जी से काफी प्रभावित थे। गांधी जी की बताई राह पर स्वतंत्रता आंदोलन पर अग्रसर थे। इसलिए लाजमी है कि गांधी जी के समर्थक होने के कारण उनकी प्रसिद्ध टोपी गांधी का प्रयोग काफी करते थे। और जन नेताओ को देख कर आम जनता ने भी इस गांधी टोपी को अपनाना शुरू कर दिया, और धीरे-धीरे गांधी टोपी गढ़वाली टोपी (Garhwali cap) और कुमाऊनी टोपी ( Kumaoni cap ) बन गई । उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में गांधी जी का ज्यादा प्रभाव देखने को मिलता है।

इसलिए कुमाऊनी लोग इस टोपी का प्रयोग ज्यादा करते हैं। गढ़वाल क्षेत्र के लोग भी इस टोपी का प्रयोग करते हैं , लेकिन कुमाऊं क्षेत्र की अपेक्षा थोड़ा कम। भारत स्वतंत्रता के दूसरे नायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी इसी प्रकार की टोपी का प्रयोग करते थे। और उत्तराखंड कई लोग आजाद हिंद फौज से जुड़े थे। इस उत्तराखण्डी टोपी के संदर्भ में एक रोचक किस्सा और है, कहते हैं स्वतंत्रता आंदोलन के समय सभी आंदोलनकारी सफेद गांधी टोपी पहनते थे। जिस कारण टिहरी के राजा को सफेद टोपियों से चिढ़ हो गई थी। और राजा ने इन टोपियों पर प्रतिबंध लगा दिया । इसी प्रतिबंध के कारण काली रंग की टोपियां चलन में आई।

गढ़वाली टोपी या कुमाउनी टोपी का इतिहास और ऑनलाइन खरीदने के विकल्प

उपरोक्त बातों से यह निष्कर्ष निकलता है, कि गढ़वाली टोपी और कुमाऊनी टोपी  उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल को स्वतंत्रता आंदोलन और गांधी जी की गाँधी टोपी की देन है। जिसने अब पारम्परिक टोपी का स्वरूप ले लिया है।

गढ़वाली टोपी या कुमाउनी टोपी ऑनलाइन कैसे मंगाए –

आजकल गढ़वाली टोपी या कुमाऊनी टोपी की बाजार में बहुत मांग है। प्रवासी कुमाउनी और गढ़वाली लोग इसे ऑनलाइन खरीद कर बड़े शान से पहनकर परदेस में पहाड़ी पन का अहसास ले रहे हैं। यहाँ हम आपको गढ़वाली और कुमाऊनी टोपियों के ऑनलाइन विश्वसनीय विक्रेताओं के लिंक दे रहे हैं। इनकी वेबसाइट और कैटलॉग के माध्यम से आप ऑनलाइन गढ़वाली टोपी या कुमाऊनी टोपी कम कीमतों में मंगा सकते हैं।

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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