नंदा देवी उत्तराखंड की बहुमान्य और बहु पूज्य देवी है। उत्तराखंड के दोनों मंडलों (कुमाऊं और गढ़वाल) में पूज्य देवी है नंदा। उत्तराखंड वासियों का माँ नंदा के साथ ऐसा रिश्ता है, शायद देश में किसी भक्त और उसके आराध्य का हो। कोई इन्हे अपनी बेटी मानता है, कोई बहिन ! मानवीय रिश्तों में बांध कर देवी माँ को प्रेम और स्नेह के बंधन में बांधना भक्ति का एक अलग ही रूप है। यह देवी कत्यूर पंवार और चांद वंशों की कुलदेवी के रूप में पूजित है।
कत्यूरी वंश की सभी शाखाओं में जिया रानी को नंदा देवी का अवतार मानते हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री आदिशक्ति माँ पार्वती के रूप नंदा देवी की हिमवन अर्थात पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में विशेष मान्यता रही है। पौराणिक साहित्य के अनुसार वाराह पुराण नंदा देवी के नाम का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि, देवी के इस रूप का हिमवन में आनंद पूर्ण विचरण करने की वजह से इसे नंदा नाम से उद्घोषित किया गया है।
उत्तराखंड के बारे में वर्णित स्कंदपुराण के मानस खंड और केदारखंड में नंदा दारुमूर्तिसमासीना कहा गया है। इसका अर्थ है, नंदा देवी का प्रतिनिधितव काष्ठ पर ही किया जाता है। इसी परम्परानुसार अल्मोड़ा और नैनीताल के नंदा महोत्सव में कदली वृक्ष पर नंदा की मूर्ति बनाई जाती है।
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अल्मोड़ा नंदा देवी मंदिर का इतिहास –
अल्मोड़ा में की मूर्ति स्थापना के बारे में कहा जाता है, कि देवी नंदा की यह मूर्ति पहले गढ़वाल के जूनियागढ़ के किले में थी। सन 1617 के आस पास चंद राजा बाजबाहदुर चंद इस किले को जीतने के बाद ,इस मूर्ति को अल्मोड़ा ले आये। वहां मल्ला महल के अंदर एक मंदिर बनाकर इस मूर्ति को स्थापित कर दिया।
यहाँ इसकी रोज पूजा होने लगी और नंदाअष्टमी को इसका वार्षिकोत्सव मनाया जाता था। किन्तु सन 1815 में अंग्रेजों और गोरखों के संघर्ष में ,मल्ला महल के भवनों के साथ माँ नंदा देवी का मंदिर भी शतिग्रस्त हो गया। इस कारण नंदा का वार्षिक उत्सव शने शने कम हो गया। बाद में पूजा मात्र औपचारिकता रह गई। जनता ने अंग्रेजों से माँ नंदा के नए मंदिर के लिए काफी आग्रह किया लेकिन उन्होंने इसकी परवाह किये बिना 1832 में इसे पूर्णतः सिविल अधिकारीयों का केंद्र बना दिया।
कहते हैं कि अंग्रेजों के इस व्यवहार से देवी नंदा रुष्ट थी। तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल साहब ,पिंडारी -मिलम यात्रा पर थे तो, अचानक उनकी आँखों की रौशनी चली गई। पंडितों ने इसे देवी का प्रकोप कहकर ,उन्हें नए मंदिर की स्थापना का सुझाव दिया। इसके बाद नंदा देवी के वर्तमान परिसर में शिव मंदिर के साथ नंदा का मंदिर बनवाकर , मूर्ति को मल्लामहल से यहाँ लाकर प्रतिष्ठित किया गया। कहा जाता है कि ,इसके बाद आश्चर्यजनक रूप से ट्रेलसाहब के आँखों की रोशनी लौट आई थी।
कहते है ,देवी की वर्तमान मूर्ति, मूल मूर्ति नहीं है, जिसे राजा बाज बाहदुर चंद जूनागढ़ से लाये थे। अष्टधातु से निर्मित वह मूर्ति चोरी हो गई थी। उसके बाद चंदवंशीय आनदं सिंह ने माँ नंदा की नयी मूर्ति का निर्माण करवाया था। उसे यहाँ स्थापित करवाया था। वर्तमान में इसी मूर्ति का पूजन होता है। राज उद्योतचंद द्वारा 1690 -91 में बनाया गया उद्योत डीप चंद्रशेखर मंदिर वर्तमान में अल्मोड़ा का नंदादेवी मंदिर कहलाता है।
नंदा देवी की कथा –
उत्तराखंड में नंदा देवी की अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। क्युकी नंदा ,गढ़वाल के परमार वंश ,कुमाऊं के कत्यूर वंश और चंद वंश की कुल देवी मानी जाती है। इसलिए नंदा देवी को राजराजेश्वरी भी कहा जाता है। सभी राजवंशों में नंदादेवी के बारे में अलग अलग कहानियाँ प्रचलित हैं।
नंदा को किसी चंदवंशीय राजा की पुत्री कहा गया है। कहा जाता है कि , यह राजा हिमालय की पुत्री माँ पार्वती का अनन्य भक्त था। उसकी कोई संतान न होने के कारण वह राजा उदास रहने लगा। एक दिन उसकी भक्ति से खुश होकर माँ पार्वती ने उसके स्वप्न में आकर कहा , कि मै तुम्हारी अगाध भक्ति से अति खुश हूँ। मै एक बार तुम्हारे घर में पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। राजा की नींद खुली तो ,वह ख़ुशी के मारे रोमांचित हो गया।
उसने बात अपनी महारानी को भी बताई। माँ पार्वती ने अपने वचनानुसार ,भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष की अष्टमी को एक दिव्यकन्या के रूप में रानी के गर्भ से जन्म लिया। जन्म के ग्यारहवे दिन विधि विधान से उसका नामकरण किया गया। राजा ने उस दिव्य कन्या का नाम अपने राज्य के सबसे ऊँचे शिखर नंदाकोट के नाम पर नंदा रखा। चंद साम्राज्य ने इस दिन को हर्षोउल्लास से मनाया। उसके बाद प्रतिवर्ष नंदाष्टमी को यह उत्सव मनाये जाने लगा।
कालान्तर में यह उत्सव अल्मोड़ा का लोकोत्सव या अल्मोड़ा का नंदा देवी का मेला के रूप में मनाये जाने लगा। यधपि यह चंदो और उनकी राजधानी अल्मोड़ा में ही केंद्रित था , लेकिन बाद में इसमें नैनीताल का लोकोत्सव भी जुड़ गया। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार ,कत्यूरवंशी राजा कीर्तिवर्मन देव की पत्नी का नाम नंदा था। वह सीता और सावित्री के सामान पवित्र थी।
नंदा देवी के बारे में गढ़वाल में प्रचलित लोकगाथाओं में इन्हे चांदपुर के राजा भानुप्रताप की पुत्री तथा धारानगरी के राजा कनकपाल की धर्मपत्नी बताया गया है। कहते हैं यह अपने दैवीयगुणों के कारण देवी के रूप में पूजी जाने लगी। वही नंदा देवी के बारे में गढ़वाल की दूसरी लोकगाथा में नंदा को हिमालय की पुत्री और चांदपुर राजा की पुत्री की सखी व् धर्म बहिन होने के कारण इसे गढ़वाल की पुत्री के रूप में पूजा जाने लगा।
मुख्यतः नंदादेवी का सम्बन्ध हिमालय और माँ पार्वती से माना जाता है। हिमालयी क्षेत्र (गढ़वाल कुमाऊं) उसका मायका और ,हिमालय, नंदा पर्वत ,कैलाश पर्वत उसका ससुराल माना जाता है। एशिया की सबसे कठिन व् बड़ी पैदल धार्मिक यात्रा नंदा राज जात इसी कहानी के आधार पर होती है। अर्थात नंदा को ससुराल छोड़ने की परम्परा को राज जात के रूप में मनाया जाता है।
नंदा देवी मेला –
नंदा को अपनी कुलदेवी मानने वाले चंद वंशी नंदाष्टमी को अपने प्रजाजनों के साथ मिलकर एक विशेष उत्सव के रूप में मानाते हैं। नंदा देवी के प्रांगण में इस उत्सव को बड़े धूम धाम से मनाया जाता है।
इस उत्सव को नंदादेवी मेला के नाम से भी संबोधित करते हैं। अल्मोड़ा और नैनीताल तीन दिवसीय मेले में प्रत्येक दिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम के साथ ,अंतिम दिन कदली स्तम्भों में निर्मित नंदा सुनंदा के मूर्तियों से सम्पूर्ण नगर बड़े भक्ति भाव व् हर्षोउल्लास से यात्रा निकाली जाती है। पूजा प्रतिष्ठान के बाद नंदा को अष्टबलि दी जाती थी।
बलि परम्परा अब लगभग समाप्त हो चुकि है। इस दिन चंद राजयवंशी अपनी कुलदेवी की पूजा के लिए अल्मोड़ा आता हैं। अल्मोड़ा में नंदादेवी का पूजन तांत्रिक विधि से किया जाता था। राजा आनंद सिंह तांत्रिक पूजा में पारंगत थे। उनके जाने के बाद यह पूजा चिनानार नामक ग्रन्थ के आधार कराइ जाती है।
संदर्भ: इस लेख में ऐतिहासिक व तथ्यात्मक जानकारियों का संदर्भ प्रो डीडी शर्मा जी की किताब उत्तराखंड ज्ञानकोष से लिया गया है।
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