लाटू देवता मंदिर में स्वयं विराजते हैं नाग देवता। उत्तराखंड चमोली के बाण गाँव मे लाटू देवता का दिव्य मंदिर है। लेकिन यहाँ देव दर्शन नही कर सकते।और यह मंदिर साल में केवल एक बार कपाट खुलते हैं। और उस समय केवल यहाँ के पुजारी आँख और मुह में पट्टी बांधकर 80 फ़ीट दूर से पूजा करते है। कहा जाता है कि यहाँ स्वयं नागराज मणि के साथ विराजमान रहते हैं। और उन्हें और उनकी मणि को कोई भी नही देख सकता है।
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आखों में पट्टी बांधकर की जाती है पूजा :-
इसको देखने से नुकसान होने का खतरा ज्यादा होता है। नागराज के विष के प्रभाव से बचने के लिए 80 फ़ीट दूर से पूजा की जाती है। तथा मणि की चमक या विष के प्रभाव से आँखे खराब न हो इसलिए पुजारी की आखों पर पट्टी बांध दी जाती है। लाटू देवता के बारे में कहाँ जाता है कि ये उत्तराखंड की कुल देवी माँ नंदा( जो कि माँ पार्वती का ही एक स्वरूप हैं) के धर्म भाई होते हैं। प्रत्येक 12 वर्ष में होने वाली उत्तराखंड और एशिया की सबसे लंबी पैदल धार्मिक यात्रा, नंदा राज जात का 12 वा पड़ाव ,चमोली बाण गाँव स्थित लाटू देवता का मंदिर है।
यहां से हेमकुंड तक , नन्दा राज जात की अगवानी करते हैं। नंदा राज जात 12 वर्ष में होने वाली एक यात्रा मेला है, जिसमे उत्तराखंड वासी अपनी बेटी नंन्दा को हिमालय कैलाश उसके ससुराल को पहुचाते हैं।
लाटू देवता की कहानी :-
उत्तराखंड के चमोली जिले के बाण गावँ के देवी चौक में स्थित लाटू देवता का मंदिर ,जिन्हें माँ नंन्दा धर्म भाई कहा जाता है। लाटू देवता की अनेक कहानियां प्रचलित हैं । जिसमे प्रथम कहानी इस प्रकार है। लाटू देवता भगवान भोलेनाथ के प्रमुख गणों में से एक और माँ नंन्दा ( पार्वती ) के भाई हैं। लाटू देवता के दो सहयोगी भी माने जाते हैं। जिनका नाम छो सिंह और बमो सिंह कहा जाता है। लाटू भगवान भोले और माँ नंन्दा के सेनापति भी थे।
राक्षसों के साथ होने वाली लड़ाईयों में अगवानी करते थे। एक बार किसी युद्ध से आ रहे थे या किसी अन्य कार्यपूर्ति के बाद आ रहे थे। अचानक चमोली के बाण क्षेत्र में रात हो गई ,और लाटू देवता ने वही रात बिताने का फैसला लिया । और वे रात बिताने के लिए एक बुढ़िया की कुटिया में गए । वहां उन्होनें बुढ़िया से पीने के लिए पानी मांगा ,तो बुढ़िया ने कहा वत्स मैं अस्वस्थ हूँ ,सामने मटकी में पानी रखा है, वहाँ से पानी पी लो।
माँ नंदा ने लाटू को अपना धर्म भाई बनाया –
लाटू देवता पानी निकालने गए ,तो वहाँ दो मटके थे ,एक मे पानी रखा था और दूसरे में शराब ( उच्च पहाड़ी क्षेत्रों के लोग,विशेषकर शौका जाती के लोग , अत्यधिक ठंड में जीवन यापन करने के लिए स्वनिर्मित शराब का प्रयोग करते हैं। ) उधर लाटू ने गलती से मटके से शराब पी ली, जिससे उनको अत्यधिक नशा होने के कारण ,गिर कर जीभ कटके ,वे गूंगे हो गए। जब मां नंन्दा को ये सब पता चला तो वे बहुत दुखी हुई। उन्होंने ने लाटू से कहा तुम यहीं रहोगे ।और देव रूप में पूजे जाओगो । जब भी मैं मायके से ससुराल जाऊंगी तब तुमसे मिलकर जाऊंगी और यहाँ से आगे तुम मेरी यात्रा की अगवानी करोगे। लाटू देवता की दूसरी कहानी के अनुसार , लाटू कन्नौज के राजकुमार थे ।
एक बार माँ नंन्दा ने इच्छा जताई कि काश कोई मेरा भाई भी होता जो मुझे ,ससुराल छोड़ने आता, भिटौली लाता और मैं उसे अपने प्रिय भाई का स्नेह देती। तब भगवान ने कहा, कि कन्नौज के राजा के दो पुत्र हैं, लाटू और बाटू वहाँ जाकर लाटू को अपना धर्म भाई बना लो।
लाटू को कन्नौज से लाई माँ नंदा –
नंन्दा कन्नौज गई ,वहां अच्छी आवभगत के बाद ,माँ नंन्दा ने लाटू को अपना धर्म भाई बना कर अपने साथ , रिसासु ले जाने का आग्रह किया। थोड़ी ना नुकूर के बाद कन्नौज के राजा व रानी मान गए। मा नंन्दा खुशी खुशी ,अपने धर्म भाई लाटू को अपने मायके रिसासू ले आई। अब जब नंन्दा ससुराल को जा रही थी ,तो बाण में जब नंन्दा कि डोली पहुँची तो , नंन्दा स्नान के लिए गई तो लाटू को तेज प्यास लग गई। वे पास की कुटिया में पानी माँगने गए तो, वहाँ बृद्ध औरत ने खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर स्वयं पानी निकालने को कहाँ, और लाटू ने गलती से शराब के मटके से शराब पी ली।
जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और मृत्यु हो गई। इस घटना से माँ नंन्दा काफी दुखी हुई। और उन्होंने लाटू को वचन दिया कि , तुम यही रहोगे और जब मैं अपने ससुराल जाऊंगी तो यहाँ से आगे तुम मेरी अगवानी करोगे।
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नंदा देवी की राज जात में अगवानी करते हैं लाटू देवता:-
कथा अनुसार वैसा ही होता है। जब भी नंन्दा राज जात कैलाश को जाती है, तो बाण से आगे को लाटू देवता अपनी बहन की यात्रा की अगवानी करते हैं। नंन्दा की प्रतीक डोली छतोली यहाँ पर अपने भाई लाटू से मुलाकात करती हैं उसके बाद लाटू देवता की प्रतीक छतोली यात्रा की आगे से चल कर यात्रा का मार्गदर्शन करती है। वार्षिक नंन्दा राजजात और 12 वर्ष वाली नंन्दा राज जात में लाटू देवता का अत्यधिक महत्व है। लाटू देवता की अन्य कथा कुछ इस प्रकार है, लाटू कन्नौज के एक आजीवन ब्रह्मचारी ब्राह्मण थे। वे यात्रा करने के बहुत शौकीन थे। एक बार यात्रा के लिए हिमालय की ओर निकल पड़े। घूमते घूमते वे बाण गावँ आ गए ।
यह गाँव उनको अतिप्रिय लगा, तो यही बस गए। एक बार उन्होंने गलती से पानी की जगह मदिरा पी लिया। और जीभ कटने से उनकी मृत्यु हो गई। और स्थानीय निवासियों उनके लिंगस्थपना कर दी। माँ नंन्दा की यात्रा भी वही से निकलती है। और नंन्दा जात का सबसे बड़ा पड़ाव है। कालांतर में वे नन्दा के धर्मभाई के रूप में प्रसिद्ध हुए और पूजे जाने लगा।
लाटू देवता मंदिर के बारे में –
लोककथाओं के अनुसार जहाँ लाटू की मृत्यु हुई थी, वहाँ स्थानीय बिष्ट जाती के लोगों ने एक पत्थर के लिंग की स्थापना कर दी थी। कुछ समय बाद लोगो ने देखा कि उस लिंग पर एक गाय दूध चढ़ा के आ जाती थी। उस गाय के स्वामी ने वो लिंग खंडित कर दिया। किसी व्यक्ति को स्वप्न में वह लिंग बाण गाँव मे पड़ा हुआ दिखा और उसे स्वप्न में उस लिंग को स्थापित करके मंदिर बनाने का आदेश भी मिला। वह व्यक्ति तत्काल बाण गावँ जाकर ,उस लिंग की स्थापना करके आया और एक मंदिर भी बनाया।
साल में एक बार खुलते हैं लाटू देवता के कपाट :-
लाटू देवता का मंदिर उत्तराखंड के चमोली जिले में बाण नामक गाँव मे स्थित है। यह मंदिर समुद्र तल से 8500 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह मंदिर 150 मीटर तक फैला हुवा है। इस मंदिर के चारों ओर सुरई के पेड़ आच्छादित हैं और मंदिर के ऊपर 05 मीटर व्यास का विशाल बरगद का पेड़ है। इस मंदिर के कपाट साल में एक बार बैशाख पूर्णिमा को खुलते हैं।
उस दिन इस मंदिर में, विष्णु सहस्त्र नाम जप और चंडीपाठ किया जाता है। लोगो का मानना है, कि इस मंदिर में लाटू देवता के रूप में स्वयं नागराज अपनी मणी के साथ रहते हैं। इसलिए मंदिर के गर्भगृह में किसी को जाने की अनुमति नही होती। मंदिर के पुजारी भी आँखों मे नाक और मुह में पट्टी बांध कर कपाटों का उदघाटन करते हैं। और पूजा भी आँख नाक मुह में पट्टी बांध कर करते हैं।
एक अन्य किदवंती के अनुसार, इस मंदिर के अंदर एक दिया जलाने के बाद सैकड़ों दिए अपने आप जल उठते हैं।सामान्य मनुष्य से इनकी रोशनी सहन होना संभव नही इसलिए पुजारी को आंखों में पट्टी बांध कर अंदर भेजा जाता है।
नोट : उपरोक्त लोक कथा व जानकारी, स्थानीय लोक कथाओं मान्यताओं और पत्र पत्रिकाओं से लिया गया है। उपरोक्त दी गई कुछ विषय पर शोध की आवश्यकता है। देवभूमी दर्शन किसी भी तरह की मान्यता की पुष्टि नहीं करता है।