कुमाऊनी जागर ( Kumauni jagar ) : जागर उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति की एक अद्वितीय पहचान है। उत्तराखंड में जागर विधा उत्तराखंड के दोनों मंडलों कुमाऊं और गढ़वाल में अलग तरीके से गायी और संपादित की जाती है। प्रस्तुत आलेख में जागर का अर्थ और कुमाऊनी जागर की संपादन पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई है। इस लेख को सम्पादित करने में स्थानीय जानकारियों के साथ साथ उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक का सहयोग लिया गया है।
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जागर का अर्थ –
जागर का अर्थ है घर परिवार में सुख शांति और मंगल हेतु दैवी शक्ति को जागृत करना। उत्तराखंड में देवी-देवताओं का आवाहन करने तथा उनके डंगरिया या पश्वा में उनका अवतरण कराने में जागर गीतों की बड़ी महत्वपूर्ण एवं अपरिहार्य भूमिका हुआ करती है। इसका प्रयोजन होता है लोकवाद्यों-ढोल-दमाऊ, डौंरी-थाली, डमरु, हुड़का आदि की धुनों पर देवता के पराक्रमों एवं उसके लोक कल्याणकारी गुणों का वर्णन करके उसके पश्वा या डंगरिया में उसका अवतरण कराकर अपने कष्टों के कारणों को जानकर उनके निवारण के उपायों के विषय में जानना अथवा किसी मनौती की पूर्ति होने पर अपने इष्टदेव के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर उसका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए रात्रि जागरण का आयोजन करना।
यह यहां के लोगों के द्वारा देवाराधन एवं कष्ट निवारण के सामूहिक आयोजन का अन्यतम रूप होता है। जो समस्त मुख्यतः ग्राम विशेष की या परिवार विशेष की सुख समृद्धि, शान्ति एवं दैविक या भौतिक कष्टों के निवारण के लिए किया जाता है। जागर की समयवधि पांच, ग्यारह या बाईस दिन की अथवा छह महीने की होती है। 22 दिन के जागर को बैसी तथा 6 महीने के जागर को छमासी कहा जाता है।
इस में इसके वाद्यावादकों द्वारा देवता विशेष के कृत्यों एवं गुणों का बखान करके उसकी प्रसुप्त शक्तियों को जागृत करके उसे पश्वा में अवतरित होने के लिए प्रेरित किया जाता है और देवता अपने भक्तों के द्वारा किये गये अपने गुणगानों एवं गाथा गानों से प्रसन्न होकर अवतरित होता है तथा उनकी व्यथा या दुःख को सुनकर उनके शारीरिक, मानसिक अथवा भौतिक कष्टों के निवारण का उपाय बताता है तथा उन्हें आशीर्वाद देता है। जागर का आयोजन धपेली, रमौल, ख्याला, जगौ, जागा, नौर्त, बैसी, वाला आदि कई रूपों में किया जाता है तथा देव डंगरिया के द्वारा बताये विधान के अनुसार परिवार पर आये पितृदोष एवं देवदोष का पूजन आदि किया जाता है।
कुमाऊनी जागर –
कुमाऊं और गढ़वाल में जागर गाने और विधि कुछ भिन्नता पाई जाती है। कुमाऊनी जागर मुख्यतः दो प्रकार की होती है –
- सार्वजानिक जागर
- व्यक्तिगत जागर
सार्वजानिक जागर –
सार्वजानिक जागर के अंतर्गत कुमाऊं क्षेत्र की वो जागर आती हैं जो ग्राम स्तर या क्षेत्र स्तर पर आयोजित की जाती है। ये जागर ग्राम देवता या क्षेत्र के क्षेत्रपाल के निमित्त लगाई जाती हैं। इस प्रकार की जागर को लगाने का उद्देश्य समस्त ग्राम की सुख शांति की कामना या ग्राम स्तर पर आये संकट का निवारण करना होता है।
व्यक्तिगत जागर –
कुमाऊनी जागर विधा में द्वितीय प्रकार की जागर का आयोजन जिसे किसी पीड़ित परिवार द्वारा अपने कष्टों के निवारण के निमित्त किया जाता है। उसमें उनके द्वारा पूजित देवता या इष्टदेवता की जागर लगाकर उसका अवतरण कराया जाता है। इसमें बजाये जाने वाले वाद्ययंत्रों के आधार भिन्न-भिन्न नामों, यथा जागर, ख्याला, जगौ, खेल, घड़ेली आदि से पुकारा जाता है। अर्थात् वाद्यवादन के स्तर पर जगौ में ढोल का, गड़देवी एवं परियों की जागर को ‘घणेली’ कहा जाता है।
डमरू तथा थाली के साथ लगने वाले को ‘खेल’ अथवा ‘वाला’ भी कहा जाता है, हुड़का व थाली का भी वादन किया जाता है। हुड़का थाली की जागर को कुमाऊनी जागर विधा में भीतरी जागर कहा जाता है। इसके अलावा ढोल दमु के साथ आंगन में जागर लगाई जाती है। जिसे बाहरी जागर कहते हैं।
भीतरी जागर ,वाह्य जागर या अलग -अलग प्रकार की जागर लगाने का मुख्य कारण देवताओं का अवतरण होता है। कई देवता घर के अंदर अवतरित नहीं होते और कई घर के बाहर नहीं खेलते हैं।
कुमाऊनी जागर संपादन विधि –
कुमाऊनी जागर विधा में जगरिया के द्वारा जागरगान को तथा उसके सम्पादन की प्रक्रिया को जिन रूपों में प्रस्तुत किया जाता है उसका रूप कुछ इस प्रकार होता है।
सांझवाली गायन या नौमत बजाना –
संध्या वन्दनः यह इसका प्रथम चरण है जिसमें समस्त देवताओं के नामों, उनके निवास स्थानों के नामों तथा संन्ध्या के समय सम्पूर्ण प्रकृति एवं दैवी कार्यों के स्वतः प्राकृतिक रूप में संचालन का वर्णन किया जाता है। देवताओ को एक प्रकार का निमंत्रण या सन्देश दिया जाता है कि जागर की तैयारी हो गई है। इसे दो बार किया जाता है। एक बार खाना खाने से पहले दूसरा जागर लगने के समय।
2. बिरत्वाई गायन –
इसके इस द्वितीय चरण में देवता की उत्पत्ति, जीवनगाथा तथा उसके चमत्कारिक कार्यों का वर्णन समाहित होता है। इसमें देवता के साहसिक कार्यों और उसके जीवन की ऐसी परिस्थिति का वर्णन किया जाता है ,जिसे सुन देव दौड़ा चला आता है या जोश में भर जाता है।
3. औसाणी या चाल देना –
यह जागर गान का तृतीय चरण होता है। इसमें जागर गायक हुड़के या ढोल की गति को तीव्र करता है तथा थाली या दमु का सहयोग होने पर उसकी गति भी तीव्र हो जाती है जिसमें देवता पूर्णरूप से उन्मुक्त होकर नाचने (खेलने) लगता है।
4. गुरु की आरती या धूनी की सेवा –
इसका चतुर्थ चरण होता है ‘गुरु की आरती’ कुमाऊनी जागर में कुमाऊं मंडल के सभी लोकदेवताओं के गुरु ‘गोरखनाथ’ की आरती या धूनी की सेवा। इसमें जगरिया देवता विशेष के द्वारा गुरु से दीक्षा लेने का वर्णन करता है तथा डंगरिया हाथ में थाली लेकर, जिसमें चावल के दाने (दानी, राख) फूल-पत्ती, आटे के दिये में जलती हुई घी की बाती होती है के साथ नाचते हुए आरती करता है। या धुनि की सेवा करने को करते हैं जिसमे देव प्रतीकात्मक रूप में धुनि की सेवा करते हैं।
5. खाक रमाई –
यह इसका पांचवा चरण होता है। इसमें डंगरिया आरती की थाली में रखी हुई राख को सर्वप्रथम अपने माथे पर लगाता है। तदनन्तर जगरिया, उसके हुड़के तथा कांसे की थाली या ढोल दमाऊ पर इस राख को लगाता है। इसके बाद वहां पर उपस्थित जनता के लोग बारी-बारी से उसके पास आकर हाथ जोड़कर माथे पर इस बिभूत का टीका लगवाते हैं। कई गावों या स्थानों में या अंतिम प्रकिया से पहले की प्रकिया होती है। इसके बाद देवता विदा होकर चले जाते हैं।
6. दाणी का विचार –
जागर के इस छठे चरण में देवता के द्वारा दाणी (चावलों के दानों) के माध्यम से जागर का आयोजन करने वाले सौकार के कष्टों के कारणों पर विचार किया जाता है। डंगरिया थाली में रखी हुई दाणियों (चावलों) को हाथ में लेकर तथा उन्हें उछाल कर चावलों के आधार पर सौकार का कष्ट और उसके कष्ट का स्तर बताता है और उनके निवारण का उपाय भी बताता है। इसके बाद देवता सौकार और सौन्यायी को आश्वाशन और आशीष देते हैं कि वे जल्द ही उनके कष्टों का निवारण कर देंगे। कुमाऊनी जागर में दानी विचार के बाद वहां उपस्थित जनता को बिभूत लगाकर देवता अपना आशीष देते हैं।
घेरीण , प्रस्थान ,विदाई –
सारे कार्यक्रम हो जाने के बाद यह कुमाऊनी जागर का अंतिम चरण होता है। इसमें जगरिया देवता को अपने वाद्य यंत्र के संगीत और और जागर गान के माध्यम से प्रस्थान का आदेश देता है या घेरने के लिए चाल देता है। अथवा औसाण देता है।
इन्हे भी पढ़े –
बैसी – खास होती कुमाऊं में होने वाली 22 दिन की तप साधना।
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