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श्राद्ध की बिल्ली, कुमाउनी लोककथा

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श्राद्ध की बिल्ली
श्राद्ध की बिल्ली

मित्रो आजकल समस्त देश के साथ पहाड़ों में भी पितृपक्ष चल रहे हैं। साथ साथ खेती का काम भी चल रहा है। इन्ही पितृपक्ष श्राद्धों पर आधारित एक रोचक कुमाउनी लोककथा श्राद्ध की बिल्ली का यहाँ संकलन कर रहें हैं। यदि अच्छी लगे तो अपने समुदाय में सांझा अवश्य करें।

कुमाऊं मंडल के किसी गांव में एक बुढ़िया और उसकी बहु रहती थी। बुढ़िया ने एक बिल्ली पाल रखी थी। बुढ़िया रसोई में खाना बनाने या किसी भी अन्य कार्य करती थी तो ,उसकी बिल्ली म्याऊ -म्याऊ करके  चूल्हे के पास बैठ जाती थी। बिल्ली की आदत ठैरी कभी किसी बर्तन में मुँह मार देती थी। अब श्राद्ध के दिन खेती के काम के साथ -साथ कई और काम भी हो जाते थे।  श्राद्ध के लिए सामान भी  लगाना होता था। बिल्ली म्याऊ -म्याऊ आदत से डर लगा रहता था कि ,कही कोई सामान जूठा ना कर दे। इसलिए जब बुढ़िया के पति का श्राद्ध होता था ,तो बुढ़िया  श्राद्ध ख़त्म होने तक बिल्ली को एक टोकरे से ढक कर रखती थी।यह काम वह हर साल के  श्राद्ध पर करती थी ,श्राद्ध के दिन वो पहले ही टोकरी ढूंढ कर रख लेती थी। बुढ़िया के इस काम को उसकी बहु बड़े ध्यान से नोट करती थी।

समय बीतता गया बहु सयानी  हो गई। सास दुबली पतली होती गई। बुढ़िया एक बार बीमार पढ़ गई। बहु ने अपनी सास की बहुत सेवा पानी की लेकिन बुढ़िया नहीं बच पायी। उसी साल बुढ़िया की बिल्ली भी मर गई। बुढ़िया के गुजरने के एक साल बाद जब बुढ़िया का श्राद्ध आया।  श्राद्ध के दिन बहु सुबह -सुबह मुँह अंधेरे में उठ कर पड़ोस में कमला के घर पहुंच कर बोली , “कमला दीदी ! आज में तुमसे एक चीज मांगने आयी हूँ। मना मत करना ! वो थोड़ी देर के लिए आपकी बिल्ली की जरुरत थी। फिर वापस कर दूंगी।” कमला बोली , “आज थोड़ी देर के लिए तुम्हे बिल्ली की क्या जरुरत पड़ गई ?”

बहु बोली, “अरे! दीदी कल मुझे याद रहा नहीं। इसलिए आज सुबह आई हूँ। बात ऐसी है कि जब तक सास जिन्दा थी ,वो ससुर के श्राद्ध के दिन बिल्ली को टोकरे से ढक देती थी। जब श्राद्ध पूरा हो जाता तब वो टोकरा उठाती थी। अब सास की पाली हुई बिल्ली भी मर गई ! मैंने सोचा क्यों ना थोड़ी देर के लिए कमला दीदी से बिल्ली मांग कर ले आऊ ,टोकरा तो घर में ही है। श्राद्ध पूरा होते ही आपकी बिल्ली आपको लौटा दूंगी।”

कमला ने हॅसते हुए बिल्ली बहु को दे दी और कहा , ‘ श्राद्ध पूरा होते ही ,”श्राद्ध की बिल्ली ” लौटा देना। हम अपने श्राद्ध के दिन बिल्ली के लिए कहाँ  जायेंगे ! !!

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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