Home मंदिर कंडार देवता | उत्तरकाशी क्षेत्र का महा ज्योतिष और न्यायकारी देवता।

कंडार देवता | उत्तरकाशी क्षेत्र का महा ज्योतिष और न्यायकारी देवता।

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कंडार देवता गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी जिले के बारह गावों का अधिष्ठातृ देव है। इनका मूल स्थान मांडो गांव है। कहते हैं इस गांव में मांडय ऋषि का आश्रम होने के कारण इसे मांडो गांव के नाम से जाना जाता है। यहाँ के स्थानीय लोकदेवताओं में इन्हे श्रेष्ठ देव माना जाता है। कंडार देवता का प्रभाव क्षेत्र उत्तरकाशी का उत्तरी क्षेत्र है। इनका निवास स्थान उत्तरकाशी का ततराली गांव है। इसका मंदिर वरुणावत पर्वत पर स्थित संग्राली गांव में स्थित है। यहाँ इन्हे धातु के मुखोटे के रूप में स्थापित किया है।

कंडार देवता के पास भूत भविष्य और वर्तमान हर सवाल का जवाब है –

बैशाख माह में कंडार देवता का डोला यहाँ से ऐरासुगढ़ जाता है। वहां तीन चार दिन का उत्सव होता है। यहाँ अन्य देवताओं के डोले भी आते हैं। कंडार देवता को शिव स्वरूप माना जाता है। धातु रुपी मूर्ती डोले के अंदर सजी रहती है। देवता डोली को हिलाकर अपने भक्तों के सवालों का जवाब देता है। पुजारी डोली का इशारा समझकर उसे लोगो को समझाता है। इसके अलावा देवता जन्मपत्री देखकर ,भूत ,भविष्य और वर्तमान भी बता देते हैं।

कहते हैं कंडार देव जन्मपत्री देखकर विवाह भी तय कर देते हैं। होने ऐसे ऐसे लोगो का विवाह तय करवाया है जिसके लिए बड़े -बड़े ज्योतिषी मना कर चुके थे। कहते हैं जब कंडार देव को गुस्सा आता है तो ,इनकी प्रतिमा में से पसीना आने लगता है।

कंडार देवता | उत्तरकाशी क्षेत्र का महा ज्योतिष और न्यायकारी देवता।

कंडार देवता को स्थानीय देवताओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है –

इस देवता को स्थानीय लोकदेवताओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। धार्मिक महोत्सवों के अवसर पर इसका स्थान केंद्रीय और सर्वोच्च होता है। और बिना कंडार देव के स्थानीय देवता पहले स्नान नहीं कर सकते हैं और न ही धार्मिक यात्राओं में सम्मिलित हो सकते हैं। इसके बारे में एक जनश्रुति है कि , इनकी मूर्ति एक किसान को हल जोतते समय किसान को परशुराम मंदिर के पीछे मिली ,उसने राज्य की संपत्ति मानकर राजभवन श्रीनगर पहुचा दिया। और राजा ने ऐसे अपने मंदिर में सब देवताओं के नीचे रखवा दिया।

दूसरे दिन राजा मंदिर गया तो उसने देखा मूर्ति सबसे ऊपर थी। राजा ने उसे फिर नीचे रख दिया। दूसरे दिन राजा का आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा ,क्युकी वो मूर्ति फिर से सबसे ऊपर आ गई थी। इसके अलावा राज्य में अनेक उथलपुथल होने लगी। राजा ने इसे परशुराम मंदिर में पहुचा दिया। वहां के पुजारी ने इसकी प्रकृति को देख कर इसे एक टीले पर स्थापित करवा दिया।

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कहते हैं कंडार देवता भृमण प्रिय देवता है। यह एक स्थान पर नहीं रहता है। यह सदा अपने क्षेत्र में भ्रमण करता रहता है।  यह देवता न्यायप्रिय देवता है। दुष्टो को दंड देता है और पीड़ितों को न्याय देता है। कहते हैं कंडार देवता की वहां वही स्थिति है ,जो हनोल में महासू देवता ,कुमाऊँ में गोलू देवता और नैटवाड़ में पोखू देवता की होती है।

इसके बारे यह भी कहा जाता है कि सन 1962 से पहले भारत -तिब्बत व्यापार में भारत के शौका व्यापारियों और तिब्बती व्यापारियों के बीच जो अलिखित कॉन्ट्रेक्ट होता था उसे कंडार प्रथा कहते थे। इसमें दोनों पक्ष एक मूर्ति को सर में रखकर , आजीवन इस व्यापारिक संबंध को निभाने की कसमे खाते थे। सम्भवतः वह मूर्ति कंडार देवता की होती होगी।

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