केदारमण्डले दिव्ये मन्दाकिन्याः परे तटे । सरस्वत्यास्तटे सौम्ये कालीतीर्थमितिस्मृतम् ।।
स्कन्द पुराण , केदारखण्ड ,अध्याय -85 अर्थात -केदारमण्डल ( उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में ) में मन्दाकिनी नदी के दूसरे (पूर्वी) तट और सरस्वती नदी के पश्चिमी तट से सटे स्थल पर कालीतीर्थ है। इसलिए इस क्षेत्र से आगे सरस्वती नदी में कालीशिला से आनेवाली धारा के मिलने के कारण इसका नाम काली नदी हो जाता है। इसी क्षेत्र को कालीमठ क्षेत्र कहते हैं। कालीमठ का पुराना नाम कलंग्वाड़ था। कालीमठ का पौराणिक नाम कालीतीर्थ है। Kalimath mandir या कालीमठ क्षेत्र वर्तमान में उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में पड़ता है।
कालीमठ मंदिर || Kalimath mandir –
कालीमठ मंदिर ( Kalimath mandir ) ,माता का वह मंदिर जहाँ उन्होंने शुम्भ निशुम्भ और रक्तबीज का वध करके समाधिस्थ या अंतर्ध्यान हो गई थी। कालीमठ मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले की मन्दाकिनी घाटी में गुप्तकाशी से लगभग 10 किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित है। यह मंदिर समुन्द्र तल से लगभग 1463 मीटर उचाई पर स्थित केदार और चौखम्बा की ढाल पर ,काली नदी के तहिने तट पर स्थित है। केदारनाथ धाम के मुख्य मार्ग पर गुप्तकाशी से एक रास्ता कालीमठ के लिए अलग निकल जाता है। kalimath temple Uttarakhand
कालीमठ मंदिर ( Kalimath mandir ) शक्तिपीठ उत्तराखंड के प्रमुख स्थलों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। कालीमठ को माँ काली का मुख्य स्थान माना जाता है। माँ काली को दस महाविद्याओं में प्रथम है। काली माँ के उग्र और सौम्य दोनों रूपों में दस महाविद्याएं आती हैं। ये महाविद्यांए कई सिद्धियां देने में समर्थ हैं। इन दस महाविद्याओं में , काली ,तारा , छिन्मस्ता ,षोडशी ,भुवनेश्वरी ,त्रिपुरभैरवी ,धूमावती ,बंगलामुखी ,मातंगी और कमला हैं।
कालीमठ मंदिर में शुम्भ और निशुम्भ वध की कथा || कालीमठ मंदिर का इतिहास –
कालीमठ ( Kalimath mandir ) में महाकाली के साथ महालक्ष्मी ,महासरस्वती ,गौरीशंकर ,भैरवनाथ और सिद्धेश्वर महादेव जी के स्वतत्रं मंदिर भी हैं। कालीमठ में माँ काली का आगमन कैसे हुवा ? इसके बारे में एक पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार प्राचीनकाल में शुम्भ और निशुंभ नामक दो उत्पाती असुर हुए थे। इन्होने संसार में खूब उत्पात मचाया हुवा था। देवताओं को स्वर्ग से खदेड़ दिया। खुद अधिपति बन बैठे थे। तब देवताओं ने हिमालयी क्षेत्र के कालीशिला नामक स्थान पर माँ भगवती की आराधना की। देवताओं की पुकार पर माँ चंडिका रूप अवतरित हुई। जब शुम्भ निशुम्भ को यह पता चला की उनके संहार के लिए देवी ने हिमालय में अवतार ले लिया है ,तो उन्होंने अपने सेनापति धूम्रलोचन को सेना सहित वहां भेजा। माँ ने उनका संहार कर दिया तब शुम्भ निशुम्भ ने अपने सेवक चंड -मुंड को माता के वध के लिए भेजा लेकिन माँ ने उनका सर से धड़ अलग करके धारण कर लिए। चंड -मुंड का वध करने के कारण माँ भगवती का नाम चामुंडा पड़ा।

चंड -मुंड के वध के पश्चयात शुम्भ और निशुम्भ ने अपने अनन्य सेवक रक्तबीज को माता के पास युद्ध के लिए भेजा। रक्तबीज को वर प्राप्त था ,कि अगर उसके रक्त की एक बूँद जमीन पर पड़ेगी तो उससे नया रक्तबीज पैदा हो जायेगा। देवी ने जब रक्तबीज को मारा तो, उसकी रक्त से बहुत सारे रक्तबीज पैदा हो गए। माँ ने उन्हें मारने के कई प्रयास किये ,लेकिन सारे रक्तबीज पैदा हो गए। अंत में माँ ने महाकाली का विकराल रूप धरा , इस रूप में उन्होंने एक हाथ में खप्पर और दूसरे हाथ में खड्ग लिया। महाकाली एक तरफ से रकबीजों का वध करते गई और उनके शरीर से निकलने वाले खून को जमींन पर पड़ने से पहले खप्पर में समेटने लगी। इस प्रकार माँ ने रक्तबीजों की खून की एक बूँद भी जमीन में गिराए बिना उनका सर्वनाश कर दिया। अंत में शुम्भ और निशुम्भ को युद्ध के लिए आना पड़ा। कहते है माँ ने शुम्भ निशुम्भ का वध करके ,कालीमठ (Kalimath mandir ) में समाधिस्थ हो गई। या अंतर्ध्यान हो गई थी।
कालीमठ मंदिर के बारे में ( About Kalimath mandir Uttarakhand ) –
कालीमठ मंदिर में श्री महाकाली , श्री महालक्ष्मी और महासरवस्ती के तीन भव्य मंदिर हैं। कालीमठ में इन तीनो शक्तियों की पूजा होती है। भक्तगण मुख्यतः महाकाली मंदिर में पूजा सम्पन्न करते हैं। माँ का,ली के विषय में कहा जाता है कि वे बहार से जितनी कठोर है अंदर से उतनी दयालु भी है। भक्तों की पूजा अर्चना से जल्दी खुश होकर उनको ऐच्छिक वर देती हैं।
कालीमठ में महाकाली मंदिर –
श्री महाकाली मंदिर लगभग सात फुट ऊँचे सीमेंट के खम्बो पर बाहर से गोलाई लिए हुए टीन की छतो से आच्छादित है। गर्भगृह में एक कुण्डी है जो रजत पात्र से ढकी रहती है। गर्भगृह में कोई भी मूर्ति नहीं है। रजत पात्र से ढकी कुंडी के विषय में बताते हैं कि इस कुण्डी के भीतर क्या है ? यह अभी तक रहस्य बना हुवा है। यह कुण्डी साल में एक बार शारदीय नवरात्रि को अष्टमी की रात्रि अँधेरे में खोली जाती है। ( Kalimath mandir )
श्री महालक्ष्मी मंदिर –
कालीमठ ( Kalimath mandir ) क्षेत्र में शक्ति के तीन मंदिरों में श्री महालक्ष्मी मंदिर सबसे बड़ा मंदिर है। श्री लक्ष्मी मंदिर गर्भगृह में अष्टधातु निर्मित चतुर्भुज प्रतिमा विध्यमान हैं। मूर्ति के पास रजत एवं ताम्र पत्रों से बने मुखोटे दर्शनीय है। इन्हे पुजारी अष्टभैरव कहते हैं। मुखौटों के पीछे शिव पार्वती अदृश्य रूप में ,अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हैं। केवल पुजारी ही अभिषेक के दौरान उसकी पूजा कर सकते हैं। और फिर उन्हें उसी प्रकार गुप्त रख दिया जाता है। गर्भगृह के बाहर मडप की दाहिनी ओर पूरी और कुछ टूटी हुई मूर्तियां है। सभामण्डप के नजदीक खष्टी कुंड है। शारदीय नवरात्री में इस कुंड को खोलकर हवन किया जाता है। खष्टी कुंड के नजदीक हवन कुंड है। हवनकुंड के बारे में मान्यता है कि इस कुंड में अग्नी तीन युगों से जल रही है। kalimath temple Uttarakhand
उत्तराखंड में त्रिजुगीनारायण ( गुप्तकाशी ), श्री राकेश्वरी ( श्री मद्महेश्वर ) श्री महालक्ष्मी मंदिर ( कालीमठ ) ये तीन मंदिर ऐसे माने गए हैं ,जहाँ युगों से अखंड धूनी जल रही है।
सरस्वती मंदिर – कालीमठ में श्री महासरवस्ती मंदिर लगभग 35 फ़ीट ऊँचा है। मंदिर के गर्भ में माँ सरस्वती की पत्थर निर्मित आकर्षक अष्टभुजी मूर्ति स्थापित है। गर्भ के बाहर गणेश भगवान् की पत्थर की मूर्ति स्थापित है।

गौरीशंकर मंदिर – कालीमठ क्षेत्र में श्री महासरवस्ती मंदिर की तरह गौरीशंकर मंदिर है। यहाँ श्री गौरीशंकर की युगल प्रतिमा स्थित है। राहुल सांकृतायन ने इस मूर्ति को हिमालय की सबसे भव्यतम मूर्ति बताया है।
सिद्धेश्वर महादेव मंदिर – सरस्वती मंदिर के नजदीक श्री सिद्धेश्वर महादेव मंदिर स्थित है। इसमें शिवलिंग प्रतिष्ठित है।
प्राचीन प्रथा के अनुसार माँ शक्ति के अधिकांश शक्तिपीठों में भैरव जी की स्थापना अवश्य होती है। इसलिए इन सभी मंदिरों से 200 मीटर ऊंचाई पर भैरव जी का मंदिर स्थित है। इसके अलावा उत्तराखंड के सिद्ध पुरुष व्रती बाबा महाराज जी ने आठ दशकों तक महाकाली की विधिवत पूजा की और काठीमठ ( Kalimath mandir ) क्षेत्र में तप करके सिद्धियां प्राप्त की।
कालीमठ में होने वाली धार्मिक गतिविधियां ( KALIMATH MANDIR ) –
कालीमठ ( Kalimath mandir ) में वर्षभर भक्तों के लिए खुला रहता है। यहाँ भक्तों का आवागमन चलता रहता है। शारदीय नवरात्र और ग्रीष्म नवरात्री में यहाँ विशेष पुजाएँ होती हैं। कालीमठ में दिसम्बर माह में देवरा यात्रा का आयोजन भी होता है। इस यात्रा में सम्मिलित होने वाले छह गावों ( कालीमठ , कविल्ठा ,व्युंखी ,जग्गी बागवान ,बेडुला और कुंजेठी ) के लोग इस आयोजन की तैयारी बड़े उत्साह से करते हैं। यहाँ कविल्ठा गांव के पुजारी लोग रहते हैं। ह्यूण,कोठेड़ा व देवशाल के आचार्य भी यहाँ पूजा कराते हैं।
कालीशिला | Kalishila Uttarakhand –
कालीमठ क्षेत्र में कालीमठ मंदिर ( Kalimath mandir) से लगभग 5 किलोमीटर की तीक्ष्ण ऊंचाई पर एक दिव्य चट्टान है। जिसको कालीशिला कहा जाता है। कालीमठ के श्री महालक्ष्मी मंदिर शिलालेख में कलिकाला शैल नाम से वर्णित कालीशिला कालीगंगा के उच्च स्तर पर स्थित एक दिव्य सिद्ध क्षेत्र है। कालीशिला शिखर इस क्षेत्र का सबसे ऊँचा पर्वत शिखर है। इसके अलावा यह क्षेत्र जड़ी बूटियों और दिव्य वनस्पतियों से आच्छदित क्षेत्र है।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार सभी देवताओं की प्रार्थना के बाद इस स्थान माँ शक्ति ने अवतार लिया। सिद्ध स्थल कालीशिला पर अनेकों मन्त्र लिखें हैं। कालीशिला पर मुख्यतः कालीमंत्र ,बंगलामुखी मन्त्र ,भैरवी मन्त्र ,मातंगी मंत्र ,छिन्नमता मन्त्र ,धूमावती मन्त्र ,त्रिपुर भैरवी मन्त्र ,षोडशी मन्त्र ,कमला मन्त्र ,तारा मन्त्र आदि अनेक मन्त्र लिखे है। आदिगुरु शंकराचार्य ने चौसठ मन्त्रों का उल्लेख सार्थ सौंदर्य लहरी में किया है। अग्नि पुराण में चौसठ तंत्रों को चौसठ योगिनियों के रूप में किया है। कूर्म पुराण और शुम्भ रहस्य में भी कालीशिला (Kalishila Uttarakhand ) का वर्णन किया गया है।
कालीशिला (Kalishila Uttarakhand ) पर तंत्र साधना भी की जाती है। और यहाँ देवी की दस महाविद्याएं सिद्ध की जाती हैं। कालीशिला के विषय में कहाँ जाता है कि इस शिला पर पौराणिक काल से देवताओं, यक्षो और गन्धर्वों का निवास रहा है। कालीशिला का वर्णन विश्व कवी कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ” मेघदूत ” में किया है। Kalishila Uttarakhand के बारे में कहा जाता है कि ,माता काली के पदचिन्ह यहाँ उत्कीर्ण हैं।
कालीशिला कैसे पहुंचे –
काली शिला पहुंचने के लिए तीन मुख्य रस्ते हैं। पहला गुप्तकाशी से कालीमठ ब्यूखीं होते हुए कालीशिला पहुँचता हैं। दूसरा मार्ग उखीमठ से मनसूना ,जुगासु ,राऊलैंक होते हुए कालीशिला पहुँचता है। तीसरा मार्ग चुन्नी बैंड से बेदुला होते हुए कालीशिला पहुँचता है।
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नोट – इस लेख के लिए प्रसिद्ध लेखक मंगत राम धस्माना जी की किताब ” उत्तराखंड के सिद्धपीठ ” का सहयोग लिया गया है। और इस लेख के कुछ चित्रों को सोशल मीडिया ( ट्विटर ) के माध्यम से संकलित किया गया है।