हिमालयी राज्य उत्तराखंड की गोद में पलने वाली झूला घास, जिसे वैज्ञानिक भाषा में लाइकेन (Lichen) कहा जाता है, प्रकृति का एक अनोखा चमत्कार है। यह फफूंदी (Fungus) और शैवाल (Algae) के परस्पर लाभकारी (Symbiotic) संबंध से बना एक जीव है, जो पेड़ों की छालों और चट्टानों पर उगता है। सतह पर यह मामूली प्रतीत हो सकता है, किंतु इसके पारिस्थितिक और आर्थिक महत्व को समझना आवश्यक है।
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जैविक संरचना और पारिस्थितिक भूमिका –
झूला घास लाइकेन एक हेलोटिज्म (Helotism) संबंध का परिणाम है, जिसमें शैवाल प्रकाश संश्लेषण से कार्बोहाइड्रेट बनाता है और फफूंदी उसे जल, खनिज, और सुरक्षा प्रदान करती है। ग्रीक दार्शनिक थियोफ्रेस्टस द्वारा सर्वप्रथम “लाइकेन” शब्द का प्रयोग हुआ, और इसका अध्ययन लाइकेनोलॉजी (Lichenology) कहलाता है। यह पेड़ों की छाल पर एक सुरक्षात्मक परत बनाकर उन्हें विपरीत वातावरण और नमी से बचाता है। उत्तराखंड में इसे मुक्कू, शैवाल, छरीया, और झूला जैसे नामों से जाना जाता है।
जैव विविधता और वितरण –
वैज्ञानिक रूप से परमेवीएसी (Parmeliaceae) परिवार से संबंधित लाइकेन की लगभग 80 जीनस और 20,000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। उत्तराखंड में 500 प्रजातियाँ मौजूद हैं, जिनमें से 158 कुमाऊं की पहाड़ियों में पाई जाती हैं। क्वरकस सेमिकारपिफोलिया (बांज) पर 25, क्वरकस ल्यूकोट्राइकोफोरा पर 20, और क्वरकस फ्लोरिबंडा पर 12 प्रजातियाँ पाई गई हैं। जामुन, बांज, साल, और चीड जैसे पेड़ झूला घास की वृद्धि में सहायक हैं।
आर्थिक और औद्योगिक महत्व –
झूला घास लाइकेन का पारंपरिक उपयोग मेहंदी, औषधियों, और मसालों में होता है, जिसके कारण औद्योगिक क्षेत्रों में इसकी भारी मांग है। गढ़वाल क्षेत्र से प्रतिवर्ष 750 मीट्रिक टन लाइकेन एकत्र कर बड़े बाजारों में बेचा जाता है। वन विभाग के अनुसार, 2011-2016 के बीच 79,166.53 क्विंटल लाइकेन को 147.33 रुपये प्रति किलो की दर से बेचा गया। पारमिलोइड लाइकेन (जैसे इवरनिसेट्रम, पारमोट्रिना) हिमालय के समशीतोष्ण क्षेत्रों से इकट्ठा किए जाते हैं और इत्र, डाई, गरम मसाला, मीट मसाला, सांभर मसाला में उपयोग होते हैं।
औषधीय और सांस्कृतिक उपयोग –
आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा में लाइकेन का उपयोग चारिला और उष्णा जैसी दवाओं में होता है। इसमें पाए जाने वाले यूज़निक एसिड (Usnic Acid) के कारण जीवाणु नाशक, ट्यूमर नाशक, और ज्वलन निवारक गुण हैं। भारतीय संस्कृति में इसे हवन सामग्री के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त, लाइकेन वायु प्रदूषण का संकेतक है; सल्फर डाइऑक्साइड की सूक्ष्म मात्रा इनकी वृद्धि को प्रभावित करती है, जिससे ये पर्यावरणीय गुणवत्ता मापने में सहायक हैं।
संग्रहण और विनियमन –
2005-06 से पहले लाइकेन का व्यापार अव्यवस्थित था, किंतु उत्तराखंड वन विकास निगम, भेषज संघ, और अन्य एजेंसियों ने इसे विनियमित किया। वन विभाग ने दोहन के लिए विशिष्ट वन क्षेत्रों की पहचान की है। ग्रामीण दैनिक आधार पर 3-5 किलो, जबकि पेशेवर 6-12 किलो लाइकेन एकत्र करते हैं। अप्रैल से सितंबर तक, विशेषकर दूधातोली वन क्षेत्र से, इसे ओक पेड़ों से संग्रहित किया जाता है। हालांकि, पेड़ों की शाखाओं को काटने से वनस्पति और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचता है।
आर्थिक मूल्य और व्यापार –
उत्तराखंड से प्रतिवर्ष 750 टन लाइकेन एकत्र और 800 टन निर्यात होता है। स्थानीय बाजार में इसका मूल्य 100-130 रुपये प्रति किलो है, जो ग्रेडिंग और ट्रेडिंग के बाद दोगुना-तिगुना हो जाता है। यह ग्रामीणों की आजीविका का स्रोत है, किंतु अत्यधिक दोहन से पारिस्थितिकी संतुलन प्रभावित होता है।
संरक्षण और शोध –
मुनस्यारी के पातालथोर में देश का पहला कवक उद्यान (1.5 हेक्टेयर) विकसित किया गया है, जहाँ लाइकेन गार्डन बनाकर जागरूकता और शोध को बढ़ावा दिया जा रहा है। वैज्ञानिकों ने इसकी विशेषताओं पर और अध्ययन की जरूरत बताई है ताकि इसके लाभ आम जन तक पहुँचें।
निष्कर्ष –
झूला घास (लाइकेन) न केवल उत्तराखंड की प्राकृतिक संपदा है, बल्कि इसका आर्थिक, औषधीय, और पर्यावरणीय महत्व इसे अनमोल बनाता है। संरक्षण और वैज्ञानिक शोध से इसके लाभ को बढ़ाया जा सकता है, ताकि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सुरक्षित रहे।
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