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प्रस्तावना
हिरन -चित्तल नृत्य, जिसे हरिण-चित्तल उत्सव भी कहा जाता है, कुमाऊं की जीवंत लोक-सांस्कृतिक पहचान है। ‘हरिण-चित्तल’ का अर्थ ‘चितकबरा हिरण’ है—इसी भाव के साथ कलाकार एक जीवंत अष्टपदी हिरण का रूप धरकर दर्शकों के बीच वन्यजीवन की सौम्यता, चंचलता और चपलता को नृत्य-आभिनय के माध्यम से साकार करते हैं। यह उत्सव मुख्यतः पिथौरागढ़ जनपद के सीरा परगने की अस्कोट पट्टी में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी (आठू) के आसपास, विशेष रूप से गमरा महोत्सव के अवसर पर आयोजित होता है। इसे आठों मेला का हिरन चित्तल नृत्य भी कहते हैं।
हिरन -चित्तल नृत्य का सांस्कृतिक महत्व –
- यह परंपरा लोकानुरंजन के साथ-साथ धार्मिक भाव-भूमि से भी जुड़ी है, अतः इसे देवनृत्य का स्वरूप भी प्राप्त है।
- नृत्य के केन्द्र में लोकदेवता बालचिन/बालछिन की आराधना होती है।
- डंगरिया कलाकार चंवर डुलाता है और ‘झुमकेलो’ टेक के साथ गाथा गाता है, जिससे नृत्य के छंद और लय में नाटकीय उत्कर्ष आता है।
- दर्शक, कलाकारों के अद्भुत तालमेल और स्वाभाविक चेष्टाओं से इस कदर तादात्म्य स्थापित करते हैं कि कृत्रिमता का भान मिट जाता है और वास्तविक हिरण जैसा अभिनय अनुभव में उतर आता है।
अष्टपदी हिरन -चित्तल नृत्य की रचना: चरणबद्ध विधि –
1. मुखौटा और सींग:
- एक व्यक्ति के सिर पर सींगों सहित हिरण का मुखौटा लगाया जाता है।
- मुख के लिए बांस की दो खपच्चियों पर कपड़ा मढ़ा जाता है।
- दो शाखाओं वाली लकड़ी की टहनी से सींगों का आकार दिया जाता है।
2. गर्दन और धड़:
- मुखौटा धारणकर्ता के पीछे दूसरा व्यक्ति उसकी गर्दन पर अपना सिर सटाकर दोनों हाथों से उसकी कमर पकड़ लेता है।
- इसी प्रकार दो अन्य व्यक्ति क्रमवार अपने आगे वाले की गर्दन पर सिर रखकर कसकर कमर पकड़ लेते हैं।
- इस संरचना से अष्टपदी हिरण का सिर और धड़ तैयार होता है।
3. अलंकरण:
- प्रथम व्यक्ति (मुख भाग) को रंग-बिरंगे फूलों और मालाओं से सजाया जाता है।
- गले में छोटी-छोटी घंटियां डाली जाती हैं।
- पीछे की ओर झालरदार पूंछ लगाई जाती है।
- प्रथम को छोड़कर बाकी तीनों को चितकबरी (रंग-बिरंगी) चादर से ढंका जाता है।
4. देवरोरी में प्रवेश:
इस रूप-सज्जा के बाद हिरण को देवरोरी (प्रदर्शन स्थल) में लाया जाता है और नृत्य-आभिनय का आरम्भ होता है।
नृत्य-अभिनय: भंगिमाएं, तालमेल और लय –
हरिण बने कलाकार:
- नाचना-कूदना, कुलाचें भरना, तीव्र गति से दौड़ना
- उठना-बैठना-लेटना, सींग से खुजलाना
- खुरों से भूमि कुरेदना
- दौड़ते हुए अचानक ठिठक जाना
- चौकन्ना होकर इधर-उधर देखना
अद्भुत समन्वय:
हिरण-चित्तल नृत्य में मुख्य नर्तक और सहभागी नर्तकों की क्रियाएं इतनी सुसंगत होती हैं कि लेटना, दौड़ना, ठिठकना आदि में कोई विसंगति नहीं आती दर्शक आत्मविस्मृत होकर असली हिरण का सजीव रूप देख रहे हों, ऐसा आभास होता है।
वादन, गायन और तालों का क्रम –
- वाद्य-लय ‘ग्यूलड़िया’ ध्वनि से गतिमान होकर अंततः ‘धूनी नमना’ ताल में पहुँचती है।
- इस तोड़ की 22 ध्वनियां पहले मंद-मंथर होती हैं और अगली आवृत्तियों में द्रुत हो जाती हैं।
- डंगरिया व्यक्ति, चीतल के ऊपर चंवर डुलाते हुए ‘झुमकेलो’ टेक के साथ गाथा के बोल गाता है; इसी टेक के साथ गाथा का छंद परिवर्तित होता है।
- डंगरिया हिरण के आगे नाचते हुए उसे ‘नाचकी रंगत’ में लाने का प्रयत्न करता है—यहीं से रस और भाव का उत्कर्ष चरम पर पहुँचता है।
गमरा महोत्सव से संबंध और प्रदर्शन की परिपाटी
चूंकि आयोजन गमरा महोत्सव के अवसर पर होता है, अतः हिरण-चित्तल नृत्य का प्रमुख उत्सव वहीं संपन्न होता है जहाँ गमरा महोत्सव आयोजित किया गया हो। परंपरानुसार, नृत्य-वृंद गांव की उन सभी मार्गों से गुजरता है जो यातायात के लिए उपयुक्त हों। लोग आनंद लेते हुए अक्षत-पुष्प आदि अर्पित करते हैं। नृत्य का समापन वहीं होता है जहाँ से इसका शुभारंभ किया गया था।
हिमालयी क्षेत्रों में क्षेत्रीय रूपांतर
उत्तराखण्ड में जैसा स्वरूप है, वैसा ही हिमाचल प्रदेश में भी मिलता है, यद्यपि अवसर और आयोजन के रूपों में स्थानीय अंतर दिखाई देते हैं।
- शिमला जनपद (हिमाचल): इसे ‘हरिण’ कहा जाता है।
- कुल्लू-चम्बा क्षेत्र: ‘हरिणान्तर’ या ‘हरिणेतर’ नामों से प्रसिद्ध।
- किन्नौर: ‘हौरिङ्फो’ (हरिणपशु) नृत्य।
- प्राचीन साहित्य में, इसी हरिणनृत्य के आधार पर किन्नरों को ‘हरिणनर्तकाः’ संबोधित किया गया है।
- कुछ स्थानों पर दो कलाकार—एक नर, एक मादा—असली या काष्ठनिर्मित सींग लगाकर स्वांग भरते हैं; विशेषतः शीतकालीन मनोरंजन के लिए इसका आयोजन होता है।
धार्मिकता और लोकनाट्य का संगम
हिरन -चित्तल नृत्य एक ओर लोकनाट्यात्मक सौंदर्यशास्त्र का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं दूसरी ओर देवावेश की अनुभूति से ओतप्रोत धार्मिकता को भी मूर्त रूप देता है। वाद्यों की लय तब तक गतिशील रहती है जब तक कि हरिण-चित्तल का मुख्य नर्तक देवावेश से आवेष्टित न हो जाए। इस सम्मिलित आध्यात्मिक-लोकानुरंजक अनुभव में कलाकार, देवता, दर्शक और लोक-संगीत—सभी एक सूत्र में बंध जाते हैं।
त्वरित तथ्य (Quick Facts)
- स्थान: अस्कोट पट्टी, सीरा परगना, पिथौरागढ़ (कुमाऊं, उत्तराखण्ड)
- समय: भाद्रपद शुक्ल अष्टमी (आठू) के आसपास
- अवसर: गमरा महोत्सव( सातों -आठों पर्व )
- प्रधान पात्र: हरिण-चित्तल (अष्टपदी हिरण), लोकदेवता बालचिन/बालछिन, रक्षक (ग्वाला), डंगरिया
- प्रमुख लय/टेक: ग्यूलड़िया, धूनी नमना, झुमकेलो
- स्वरूप: लोकनाट्य + देवनृत्य
निष्कर्ष –
हिरण-चित्तल नृत्य कुमाऊं के लोकजीवन का एक अनुपम कलात्मक-सांस्कृतिक उत्सव है, जिसमें प्रकृति, अध्यात्म, नाट्य और संगीत का अद्भुत सम्मिलन दिखाई देता है। अष्टपदी हिरण की सजीव प्रस्तुति, डंगरिया का गाथागान, ‘झुमकेलो’ टेक का छंद-विन्यास और दर्शकों का उत्साह—सभी मिलकर इसे एक अविस्मरणीय लोकानुभव बनाते हैं। हिमाचल की विविध शैलियों के साथ इसका अंतर्संबंध इस परंपरा की व्यापकता और लोकप्रियता का प्रमाण है।
संदर्भ – प्रो dd शर्मा ,उत्तराखंड ज्ञानकोष
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