हिलजात्रा 2025 में मुख्य रूप से 05 सितंबर 2025 को कुमौड़ गांव में मनाया जायेगा ।
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परिचय :
हिलजात्रा उत्सव उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जिले का प्रमुख उत्सव है। यह सोरघाटी में विशेषतः बजेटी, कुमोड़, बराल गावं, थरकोट, बलकोट, चमाली, पुरान, देवथल, सेरी, रसैपाटा में मनाया जाने वाला लोकनृत्य है। और कुछ परिवर्तनों के साथ हरिण चित्तल नृत्य के रूप में अस्कोट और कनालीछीना में मनाया जाता है। यह लोकनृत्य कृषि व्यवसाय से संबंधित होने के कारण इसमें अभिनय करने वालों का रूप भी उसी के अनुसार होता है। अर्थात इसमें कोई हल जोतते हुए बैल बनता है तो कोई हल जोतने वाला किसान, कोई ग्वाला, कोई मेड बांधने वाला तो कोई अन्य पशुओं का रूप धारण करते हैं।
मुखौटे और वेशभूषा :
विभिन्न पशुओं और पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता उन पात्रों के मुखौटे अपने चेहरे पर लगाते हैं। इसलिए हिलजात्रा को उत्तराखंड का प्रसिद्ध मुखौटा नृत्य भी कहते हैं। यह मुखौटे लकड़ी के बने होते हैं। अभिनय करने वाले लोग आधे अंग में केवल कच्छा पहन कर बाकी शरीर में सफ़ेद मिट्टी पोत लेते हैं। उस पर काली-सफ़ेद धारियां यानि बूटें डाल लेते हैं। इस प्रकार का गेटअप लेकर लोग अलग-अलग अभिनय करते हैं।
उत्सव का आयोजन :
कुमौड़ में हिलजात्रा का प्रारम्भिक स्थल कोट से तथा बजेटी में बिरखमचौक से हिलजात्रा का प्रारम्भ करके लोग मुख्य उत्सव स्थल तक ढोल-नगाड़ों के साथ नृत्य करते हुए, घोड़ा, बैलों की जोड़ी, हिरन, अड़ियल बैल के मुखौटे पहने, हाथ में सफेद मिट्टी लेकर सभी दर्शकों के चेहरों पर उसे पोतती हुई दुतारी एवं हुड़किया बौल के गायकों की टोली प्रवेश करती है। इसमें पर्वतीय कृषकीय वेषभूषा में कृषिपरक कार्यों का मनोरंजनात्मक प्रदर्शन एवं नृत्य व अभिनय का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है।
प्रमुख आयोजन स्थल :
कुमौड़ गांव के संदर्भ में देखा जाता है कि वहां पर यह उत्सव गांव के मैदान में स्थित लगभग सौ साल पुराने विशालकाय झूले के नजदीक आयोजित किया जाता है। लखिया भूत को लोग सती के दाह से सम्बद्ध भगवान शिव के गण वीरभद्र का अवतार मानकर उसे अपने श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए हाथों में फूल, अक्षत लेकर खड़े रहते हैं।
जुलूस और स्वांग :
अपराह्न में सर्वप्रथम मुखिया सहित गांव के सयाने लोग देवताओं के चिह्नों से अंकित लाल झंडो एवं स्थानीय वाद्यों के साथ कोट (किले) से उत्सव स्थल तक आते हैं। इसके उपरान्त अनेक स्वांग भरने वाले युवक बैल, ग्वाले, धोबी, नाई, व्यापारी, मछुआरा आदि के वेशों में प्रवेश करके अपनी ऊटपटांग शारीरिक एवं वाचिक क्रियाकलापों से वहां उपस्थित दर्शकों को हंसाकर उनका मनोरंजन करते हैं।
महिला पात्रों का अभिनय :
यह कार्यक्रम काफी देर तक चलता रहता है। इसमें पुतरिया घुटनों तक अपनी धोती को समेटे पुतेर (धान के पौधों) की रोपाई करने वाली महिलाओं को देते रहने का अभिनय करती है। वे मिट्टी के ढेले फोड़ती हुई बीच-बीच में खेत के किनारे जाकर बच्चों को स्तनपान कराकर उन्हें सुलाने का भी अभिनय करती रहती हैं।
हलिया बैल को छोड़कर हुक्का पीता है। महिलाएँ कलेवा लेकर आती हैं और काम करने वालों को देती हैं। बीच में हरिण चित्तल का पात्र भी उछल-कूद करता हुआ दर्शकों का मनोरंजन करता है।
लखियाभूत का प्रवेश :
अन्त में नगाड़ों की ध्वनि सुनाई देती है जो संकेत करती है कि अब इस उत्सव का प्रमुख पात्र लखियाभूत आ रहा है और उसके लिए मैदान खाली कर दिया जाए। उस समय रोपा लगाने वाली महिला पात्रों के अतिरिक्त अन्य सभी पात्र मैदान से बाहर हो जाते हैं। तब नगाड़ों की ध्वनि के साथ प्रवेश करता है लखिया भूत।
कौन है लखियाभूत (Lakhiya Bhoot Ki Kahani)
लखिया भूत उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के उत्सव हिलजात्रा उत्सव का प्रमुख पात्र है। इसे भगवान शिव का अंश या उनका प्रमुख गण माना जाता है। कई लोग इसे भगवान वीरभद्र का अवतार भी मानते हैं। इसका प्रवेश उत्सव के अंतिम भाग में होता है।
यह काले वस्त्रों में, लम्बे काले बालों के साथ, हाथों में काले चवर लिए और गले में मोटे रुद्राक्ष की माला धारण किये उत्सव स्थल में प्रवेश करता है। दो वीर उसके कमर में बांधे रस्सों से उसे थामे रहते हैं। उस समय सभी दर्शक पुष्प अर्पित करके सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। लखिया भूत सभी श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देता हुआ उत्सव स्थल में घूमते हुए बाहर निकल जाता है। और इसी के साथ उत्सव का समापन हो जाता है।
हिलजात्रा उत्सव का इतिहास (Hill Jatra Was Introduced)
हिलजात्रा किसके द्वारा प्रारंभ की गई थी? इसके इतिहास पर आधारित जनश्रुति इस प्रकार है।
सोर घाटी पिथौरागढ़ में प्रचलित इस उत्सव के विषय में माना जाता है कि इसका आधार नेपाल में प्रचलित यात्राएं जैसे – महेन्द्रनाथ रथजात्रा, गायजात्रा, इन्द्रजात्रा, पंचाली भैरवजात्रा, गुजेश्वरी जात्रा, चकन देवजात्रा, घोड़ाजात्रा, बालजूजात्रा आदि हैं।
लोकश्रुति के अनुसार पिथौरागढ़ में इस हिलजात्रा उत्सव का प्रारम्भ राजा पिथौराशाही के समय नेपाल की इन्द्रजात्रा से लौटे चार महर भाइयों ने कुमौड़ ग्राम में किया था। कहा जाता है कि वे बड़े वीर थे और उन्होंने नरभक्षी शेर का आतंक खत्म किया था। राजा ने इनाम स्वरूप उन्हें भूमि प्रदान की।
- सबसे बड़े भाई कुंवर सिंह कुरमौर को कुमौड़ मिला।
- चहज सिंह को चेंसर।
- जाखन सिंह को जाखनी।
- बिण सिंह को बिण क्षेत्र मिला।
यही कारण है कि इन क्षेत्रों के नाम महर भाइयों से जुड़े हुए हैं।
नेपाल की इन्द्रजात्रा से जुड़ी कथा-
एक बार महर भाई इन्द्रजात्रा में नेपाल गए। वहां बलि हेतु भैंसा इतना बड़ा था कि उसकी गर्दन एक वार में नहीं कट सकती थी। महर भाइयों ने राजा की अनुमति लेकर कौशल से उसकी गर्दन काट दी।
पुरस्कार में जब राजा ने उनसे मांगने को कहा, तो उन्होंने हिलजात्रा उत्सव मनाने की अनुमति और मुखौटे मांगे। राजा ने सहमति दी और उसी दिन से कुमौड़ में आठूं पर्व के अगले दिन यह उत्सव मनाया जाने लगा।
संदर्भ
उत्तराखंड ज्ञानकोष, प्रो. डी.डी. शर्मा
फोटो : साभार सोशल मीडिया
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