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भूमिका :-
हरेला पर कविता : उत्तराखंड की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत का प्रतीक हरेला पर्व, कर्क संक्रांति पर श्रावण मास के पहले दिन मनाया जाता है। यह पर्व प्रकृति के प्रति प्रेम, कृषि विज्ञान और सामाजिक एकता को दर्शाता है। सात या पांच अनाजों का मिश्रण बोकर अंकुरण के माध्यम से समृद्धि का संदेश दिया जाता है। मातृशक्ति की देखरेख में तैयार हरेला, पकवानों और पौधरोपण के साथ पर्यावरण संरक्षण का प्रण लेता है। यह कविता हरेला पर्व की भावना को उजागर करती है, जो देवभूमि की परंपराओं और प्रकृति के प्रति उत्तराखंडवासियों के अटूट प्रेम को व्यक्त करती है।
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हरेला पर कविता – हरेला का गीत
हरेला आया, हरियाली लाया,
देवभूमि ने फिर खुद को सजाया।
कर्क संक्रांति की पहली सुबह,
श्रावण मास का पावन सुअवसर बना।
प्रकृति ने ओढ़ी हरी चूनर,
सजे खेत, खलिहान, घर-आँगन सुंदर।
धान, मक्का, गहत, तिल, उड़द और भट्ट,
बीजों के संग उगा जीवन का रथ।
छोटे-छोटे अंकुरणों में सपने पलते,
माँ की ममता संग इन्हें निहारते।
कुवारी कन्याएँ बोती आस की फसल,
हरियाला देख, दिल में खिल उठता कमल।
“जी रये, जागी रये,”
गूंजे हर घर, हर छत, हर देहरी पे।
दुब जैसा पनपना, बल्द जैसा बल पाना,
स्याउ जैसी बुद्धि, पाणि जैसी शुद्धता पाना।
पकवानों की खुशबू महके हर द्वार,
पूड़ी, पुए, बड़े – स्वाद का उपहार।
डिकरे बने शिव-पार्वती गणेश के,
रुई, मिट्टी, प्रेम से संजोए गये विशेष के।
नवविवाहिताएं मायके जाएं,
हरेला साथ, प्रेम संदेश लाए।
बुजुर्गों के हाथों से आशीष मिले,
हरेला माथे पर रख, मन खिल उठे।
पेड़ लगाओ, प्रकृति बचाओ,
हरेला का संदेश यही बतलाओ।
देवभूमि का यह लोकपर्व प्यारा,
प्रकृति प्रेम का, संस्कृति का सहारा।
हरेला आया, हरियाली लाया,
धरती मुस्काई, अम्बर भी गाया।
उत्तराखंड की संतानें कहें बारम्बार,
“प्रकृति माता को हमारा प्रणाम अपार।
हरेला पर्व 2025 : तिथि, महत्व और परंपराएं | Harela festival 2025 date
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