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घेंजा उत्तराखंड का खास लोकपर्व ! जो अब विलुप्ति के द्वार पर खड़ा है।

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क्या है घेंजा पर्व ?

जैसा कि हम सबको ज्ञात है, कि उत्तराखंड के सभी तीज त्यौहार प्रकृति की सेवा व रक्षा, उत्तम स्वास्थ्य और जीव कल्याण को समर्पित होते हैं। इन्ही लोकपर्वों में एक लोक पर्व है घेंजा,जिसे टिहरी ,उत्तरकाशी क्षेत्र में पौष मासांत पर मनाया जाता है।मकर संक्रांति के एक दिन पहले मनाये जाने वाले लोकपर्व में , मोटे अनाज के आटे के घेंजा बनाये जाते हैं।

इनकी खासियत यह होती है कि इन्हें बिना तेल के, भाप की सहायता विभिन्न स्वादों में बनाया जाता है। इन्हे स्थानीय भाषा में द्युड़ा भी कहते हैं। और कुमाऊं के घुघुतिया की तरह माल्टा, संतरा ,गलगल के साथ गूथ कर आनंद मनाते हैं। और खाते हैं। बहन बेटियों को मायके बुलाकर मिलजुल कर त्यौहार का आनंद लेते हैं।

कैसे बनाये जाते हैं घेंजा –

घेंजा बनाने के लिए मकर संक्रांति से दो दिन पहले तैयारी शुरू हो जाती है। ये गढ़वाल में काफी प्रसिद्ध है। खासकर उत्तरकाशी ,टिहरी क्षेत्र में। इसको बनाने के लिए मोटे अनाज और लाल चावलों का प्रयोग किया जाता है। मोटे अनाज में कौणी ,झंगोरा का प्रयोग किया जाता है। घेन्जा बनाने के लिए सर्वप्रथम गुड़ की चासनी बनाई जाती है। फिर उसे छान कर मोटे अनाज और लाल चावलों के मिक्स आटे में डाल कर गूँथ लिया जाता है।

फिर उनकी गोल गोल चपटे आकार  गोले बनाये जाते हैं। उसके बाद एक पतीली में नीबू आय बांज, खरसू के पत्ते बिछा कर ,उनके ऊपर घेन्जा रखकर भाप में पका लेते हैं। फिर गर्म गर्म घेंजा को दही के साथ परोसा जाता है। सादे घेन्जा के अलावा ,नमकीन घेंजा, दाल भरे हुए घेन्जा भी बनाये जाते हैं।

घेंजा

इस त्यौहार से संबंधित लोक मान्यता –

घेन्जा लोक पर्व भूमि माता अर्थात पृथ्वी को समर्पित लोक पर्व है। लोकमान्यता में पृथ्वी को पालनहार भगवान् नारायण की धर्मपत्नी माँ लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। मान्यता है कि इस समय ( जनवरी मध्यान में ) भूमि देवी रजस्वला होती है। इसलिए खेती बाड़ी से संबंधित सभी कार्य बंद कर दिए जाते हैं। तथा पूर्ण समर्पित होकर भूमि देवी रूप में माँ लक्ष्मी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि ऐसा करने से आगामी फसल के लिए पृथ्वी की उत्पादन क्षमता दुगुनी हो जाती है।

विलुप्ति के द्वार पर खड़ा है यह लोक पर्व –

अच्छे स्वास्थ और स्थानीय स्तर पर उगने वाले मोटे अनाज की महत्ता को समर्पित यह लोकपर्व आज विलुप्ति के द्वार पर खड़ा है। सरकार ने 2023 को मोटे अनाज वर्ष के रूप में समर्पित किया था ,वही मोठे अनाज को समर्पित इस लोकपर्व को लोग भूलते जा रहे हैं। आज जरूरत इसके बारे में सोशल मीडिया अन्य मंचो से अधिक से अधिक जानकारी प्रचारित करना, ताकि उच्च सामाजिक संस्थाएं और सरकार इसके बारे संज्ञान लें और सभी लोगों के मिले जुले सहयोग से इस विलुप्ति की कगार पर खड़े पर्व को बचाया जा सके।

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SOURCEशांति प्रसाद नौटियाल जी एवं सुभास चंद्र नौटियाल जी के लेख।
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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