उत्तराखंड में अनेक लोक पर्व मनाए जाते हैं। अगल अलग मौसम में अलग अलग त्यौहार मनाए जाते हैं। इनमे से एक लोक पर्व बिखौती है। जिसे उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाता है। और प्रसिद्ध स्याल्दे बिखौती का मेला द्वाराहाट में मनाया जाता है।
बिखौती त्यौहार उत्तराखंड के लोक पर्व के रूप में मनाया जाता है। बिखौती त्योहार को विषुवत संक्रांति के दिन मनाया जाता है। इसलिए इसे लोक भाषा में बिखौती त्यौहार कहा जाता है। प्रत्येक साल बैसाख माह के पहली तिथि को भगवान सूर्यदेव अपनी श्रेष्ठ राशी मेष राशी में विचरण करते हैं।इस स्थिति या संक्रांति को विषुवत संक्रांति या विशुवती त्योहार या उत्तराखंड की लोक भाषा कुमाऊनी में बिखोती त्योहार कहते हैं।
विषुवत संक्रांति को विष का निदान करने वाली संक्रांति भी कहा जाता है। कहा जाता है,इस दिन दान स्नान से खतरनाक से खतरनाक विष का निदान हो जाता है। विषुवत संक्रांति के दिन गंगा स्नान का महत्व बताया गया है। बिखौती का मतलब भी कुमाउनी में विष का निदान होता है। बिखौती त्यौहार को कुमाऊ के कुछ क्षेत्रों में बुढ़ त्यार भी कहा जाता है। बुढ़ त्यार का मतलब होता है, बूढ़ा त्यौहार ।
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बिखौती त्यौहार को बुढ़ त्यार ( बूढ़ा त्यौहार ) क्यों कहते है –
गांव के बड़े बूढे लोग बताते हैं ,कि विषुवत संक्रांति के दिन बिखौती त्यौहार के बाद लगभग 3 माह के अंतराल बाद कोई त्योहार आता है। मतलब सूर्य भगवान के उत्तरायण स्थिति में यह अंतिम त्यौहार होता है। इसके 3 माह बाद पहाड़ में हरेला त्योहार आता है। हरेला त्योहार सूर्य भगवान कि दक्षिणायन वाली स्थिति में पड़ता है। अपनी सीरीज का अंतिम त्यौहार होने की वजह से इसे कुमाऊँ के कुछ हिस्सों मे बुढ़ त्यार या बुढ़ा त्यौहार भी कहते हैं।
लोक पर्व बिखोती के दिन क्या करते है
लोक पर्व बिखौती के दिन नई फसलों का भोग अपने देवी देवताओं को लगाते हैंं। पूरी पकवान बनाये जाते हैं। पहाड़ो में संवत्सर प्रतिपदा के दिन कुल पुरोहित आकर सबको संवत्सर सुनाते हैं। अर्थात सारे साल भर का राशिफल बता कर जाते हैं। इसमे देश दुनिया के राशिफल के साथ व्यक्ति विशेष के राशिफल भी बताते है।
जिनकी राशी में वाम पाद दोष होता है, वो बुढ़ त्यार के दिन, शिवालय में जल चढ़ाकर एवं पाठ कराकर अपना वाम पाद दोष शांत कराते हैं। कुमाऊ के कुछ क्षेत्रो में हरेला भी बोया जाता है। इस दिन बिखौती के दिन कुमाऊं का प्रसिद्ध एतिहासिक स्याल्दे बिखौती का मेला भी लगता है।
स्याल्दे बिखौती का मेला –
उत्तराखंड द्वाराहाट में यह सांस्कृतिक और व्यपारिक मेला लगता है। द्वाराहाट को सांस्कृतिक नगरी कहा जाता है। यहाँ पांडव काल के , तथा कत्यूरी राजाओं के बनाये अनेक मंदिर है। स्याल्दे बिखोति के मेले में दूर दूर से व्यापारी आते हैं। आजकल तो तो काफी विकास हो गया ,हर समान लोगो के घर पर मिलता है। या लोग पलायन कर गए। किन्तु पुराने समय मे इसका बहुत बड़ा व्यापारिक महत्व था।
स्याल्दे बिखौती मेले का व्यपारिक के साथ संस्कृतिक महत्व भी है। यहाँ राज्य के कोने कोने से कलाकारों के दल आते है, अपनी कला प्रस्तुतियां देने हेतु तथा कुमाउनी लोग नृत्य व गीत झोड़ा चाचरी की धूम रहती है यहां की सांस्कृतिक पहचान है ओढ़ा भेटने की रस्म ।
स्याल्दे बिखौती ओढ़ा भेटने की रस्म –
स्याल्दे बिखौती की प्रमुख सांस्कृतिक पहचान है,यहाँ की ओढ़ा भेटने की रस्म है। कहते हैं, प्राचीन काल मे स्थानीय गाव के लोग यहाँ शीतला देवी के मंदिर में आते थे और पूजा पाठ करके जाते थे। किंतु एक बार कुछ गावो के बीच खूनी संघर्ष हो गया। और खूनी संघर्ष इतना बढ़ गया कि हारे हुवे गावो के सरदार का सिर काट कर गाड़ दिया। जिस स्थान पर उसका सिर काट कर गाड़ा गया ,वहाँ पर
स्मृति चिन्ह के रूप में एक बड़ा पत्थर स्थापित कर दिया गया। इसी पत्थर को ओढ़ा कहा जाता है। यह पत्थर द्वाराहाट चौक में आज भी है। और इसी पत्थर ( ओढ़ा ) पर चोट मार कर आगे बढ़ते हैं। और ओढ़े पर चोट मारकर आगे बढ़ने की रस्म को ओढ़ा भेटना कहते हैं। यह कार्य हर बार स्याल्दे के मेले में होता है। धीरे धीरे यह परंपरा बन गई और आज यह स्याल्दे बिखौती मेले की सांस्कृतिक पहचान है।
इस क्षेत्र के सभी गाव अपना अपना दल बनाकर , अपने नांगर निसान लेकर , बारी बारी से ओढ़ा भेटने की रस्म अदा करते हैं। यह कार्य दोपहर के बाद किया जाता हैं। पहले यह मेला इतना बड़ा होता था कि दलों को अपनी बारी के इंतजार के लिए दिन भर इंतजार करना पड़ता था। तुतरी (तुरही) कि हुंकार और ढोल दमूवे की दम दम के बीच ,यह अदभुत प्राकृतिक दृश्य देखते बनता है।
जैसे कुंभ में शाही स्नान का दृश्य होता है,ठीक वैसा ही दृश्य होता है, स्याल्दे बिखौती में ओढ़ा भेटने की रस्म में। पहले ओढ़ा भेटने की रस्म में थोड़ी अव्यवस्था का माहौल होता था,कई बार तो स्थिति संघर्ष तक पहुच जाती थी । अब इसमे थोड़ा सुधार करके क्षेत्रीय गाावों को तीन प्रमुुुख दलों में बाट दिया। और इनके आने के समय और स्थान स्थिति में भी बदलाव कर दिया गया।
स्याल्दे बिखोति के प्रमुख दल –
- आल
- गरख
- नोज्युला
आल धड़े में गाँव –
तल्ली मिरई मल्ली मिरई ,विजयपुर, पिनोली, तल्ली मल्लू किराली के 6 गाँव हैं। इनका मुखिया मिरई गाव का थोकदार हुवा करता है। इनका ओढ़ा भेटने का मार्ग बाजार के बीच की तंग गली है।
गरख धड़े के गाँव –
गरख धड़े में सलना, बसेरा ,असगोली, सिमलगाव ,बेदुली , पठानी, कोटिला , गाँव को जोड़ कर लगभग 40 गाँव सम्मिलित हैं। इनका मुखिया सलना गाव का थोकदार होता है। इनका ओढ़ा भेटने का मार्ग पुराने बाजार से हैं।
नोज्युला धड़ा के गाँव –
छतिना ,बीमानपुर ,सलालखोला ,बमनपुर , कौला ,इड़ा , बिठौली , कांनडे और किरोल फाटक गांव हैं। इनका थोकदार द्वाराहाट के होता है। तथा इनका मार्ग द्वाराहाट बाजार के बीच से होता है।
स्याल्दे बिखौती के पहले दिन बाट पूूूज मतलब रास्ते की पुुजा होती हैै। इसे छोटी स्याल्दे कहा जाता है। इसी दिन देवी को निमंत्रण दिया जाता है। ये दोनों कार्य नॉज्युला धड़ा करता है।
पहले यह मेला बहुत बड़ा होता था, इस मेले की तुलना कुंभ मेले से की जाती थी। इसलिए कुमाउनी प्रसिद्ध गायक स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी जी का एक प्रसिद्ध गीत इस मेले पर आधारित है। जिसके बोल हैं, अलखते बिखौती मेरी दुर्गा हरे गे
पहले इसका व्यपारिक महत्व काफी था, दूर दूर से व्यपारी आकर यहाँ दुकान लगाते थे। सांकृतिक टोलियां , भगनोल गाने वाले , झोड़ों और चाचरी की धुन में पूरा कुमाऊ खो जाता था। वर्तमान में आधुनिकीकरण और पलायन के कारण ,इसकी रंगत कम पड़ गई लेकिन इस ऐतिहासिक मेले की आत्मा अभी भी जीवंत है।
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इन्हें भी देखें –
ओड़ा भेटना – स्याल्दे बिखौती मेले की प्रसिद्ध परम्परा।
मासी सोमनाथ का मेला उत्तराखंड का ऐतिहासिक मेला।