Tuesday, December 5, 2023
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गढ़वाली कविता – एक नवेली दुल्हन की गांव के पलायन की पीड़ा

मित्रों टिहरी गढ़वाल से श्री प्रदीप बिजलवान बिलोचन जी ने पलायन के दर्द को बताती एक गढ़वाली कविता भेजी है। गढ़वाली भाषा में कविता का आनंद लीजिये और अच्छी लगे तो शेयर करें। 

गढ़वाली कविता – एक नवेली दुल्हन की गांव के पलायन की पीड़ा –

न बाबा न मिन कतै भी तै बांझा सैसुर नी जाणी ।

तख छ बाघ रिख की डैर ,

जीकुड़ी मां पड़ी जांदू झुराट अर मैं तैं त पोड़ी गेनी आणि ।

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गोणी बांदूरू न त बल बांझा गेरी यालीन साग, सगवाड़ी ।

तब मिन अर सासु जी न तुमी बोला क्या त खाणी ।

गांव का सभी लोग उंदू चलीगेनी,

मिन अर सासु जी न यखुली यखुली कनै राणी । 

न बाबा न मिन कतै भी तै बांझा सैसुर नी जाणी ।

गांव मां त रई गेनी बल लाटा काला ।

अर कदम कदम पर खूल्यान जू स्कूल ऊं मां,

झटपट ही लगी जांदीन ताला ।

यख त हमारा गांव मां त होणु छः विकास ।

कना त छन म्यारा मैती स्वरोजगार ।

कट्ठा रैण मां यख त नी छ केकी डार ।

जबरी तलक मेरा सैसर माजी भी सैरू उंदा ,

लोग भी घर जना नी बोडला ।

अर अपणी इं जन्मभूमि मां स्वर्ग नी ढूंढला ।

तबारी तक नी कन मिन तै सैसूर जाण की स्याणी ।

न बाबा न मिन कतै भी तै बांझा सैसुर नी जाणी ।

भैर का लोग जब यख आइकी अपण सुख चैन, खोजदीन ।

त तुम तब होटुलू मां भांडा कुंडा ही धोंदा छीन ।

यख त छ छोया छमोटों कु ठंडो ठंडो सी अमृत,

सी जनू पाणी। 

न बाबा न मिन त कतै भी तै बांझा सैसुर नी जाणी ।

गढ़वाली कविता के लेखक _  ## प्रदीप बिजलवान बिलोचन ###

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