Thursday, May 22, 2025
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पितृ पक्ष में कौवों का महत्व , कौओं का तीर्थ कहा जाता है उत्तराखंड के इन स्थानों को

पितृ पक्ष में कौवों का महत्व :

समस्त देश में भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन अमावस्या तक पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। इस दौरान लोग अपने पूर्वजो का पिंडदान श्राद्ध करते हैं। अपने पूर्वजों को याद करते हैं। श्राद्धपक्ष का हिन्दू धर्म में बहुत महत्त्व है। पितृपक्ष में पूर्वजों के आशीर्वाद लेने से घर में सुख शांति बनी रहती है। समस्त भारत के साथ उत्तराखंड में भी पितृ पक्ष में कौओ को काफी महत्त्व दिया जाता है। पितृ पक्ष में गौ माता के साथ कौवो को भी भोजन कराया जाता है। ( कौओं का तीर्थ )

धार्मिक मान्यताओं के आधार पर कहा जाता है ,कि पितृ पक्ष में ,पुरखे  कौओं का रूप लेकर धरती में आते हैं। पितरो तक श्राद्ध का अंश पहुंचाने के लिए कौओ को माध्यम बनाया जाता है । पौराणिक कथाओं के आधार पर बताया जाता है कि,समुद्र मंथन पर देवताओं के साथ कौए ने भी अमृत चख लिया था। इसलिए कहते हैं, उनकी मृत्यु का पता नहीं चलता। कौओ की अप्राकृतिक मृत्यु होती है। कौए बिना थके लम्बी दूरी की यात्रा कर सकते हैं। सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार इंसान को मृत्यु के उपरांत कौओ की योनि में जन्म लेना पड़ता है।

इसके अलावा  रामायण में एक प्रसंग आता है ,एक बार देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने  कौए का रूप धारण करके ,माँ सीता को चोंच मार कर घायल कर दिया। तब भगवन राम ने एक तिनके में अस्त्र की शक्ति प्रवाहित करके ,कौए  की आँख फोड़ दी। जयंत को जब अपनी गलती का अहसास हुवा तो ,उसने भगवान् राम से  क्षमा याचना की।  तब प्रभु श्रीराम ने उसे आशीर्वाद दिया कि पितृ पक्ष में लोग बड़ी श्रद्धा भाव से कौओ को भोजन कराएँगे। और यह भोजन उनके पितरों को पितृ लोक में प्राप्त होगा।

जिस प्रकार हिन्दुओं के तीर्थ , काशी हरिद्वार और ऋषिकेश हैं। और इंसानों के अन्य धर्मो का तीर्थ और कई स्थान है। ठीक उसी प्रकार ऐसी मान्यता है कि इस धरती पर कौवों का भी तीर्थ स्थल है। कौओं के तीर्थो हैं, क़व्वालेख और काकभुशंडि ताल 

क़व्वालेख, कौओं का तीर्थ –

तीर्थ हिमालयी क्षेत्र के उत्तराखंड राज्य में , कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जिले के दानपुर परगने के खतिगावं के ऊपर नंदा देवी के पक्षिम की तरफ स्थित है। क़व्वालेख नमक पर्वत कौओं का पवित्र तीर्थ स्थल माना जाता है। यह मनुष्यों की पावनधाम काशी की तरह कौओं का पावन धाम माना जाता है। इस क्षेत्र के बारे में ऐसी मान्यता है कि ,जो कौवा यहाँ मरता है , उसे सदगति प्राप्त होती है।

उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। कहते हैं जब  भी कोई कौआ मृत्यु के नजदीक होता है , तो वह अपने प्राण त्यागने के लिए इस क्षेत्र में आ जाता है। यदि कोई कौआ कोई दूसरी जगह मरता है तो , उसके पंख को यहाँ लाकर डाल देते हैं। कहा जाता है कि यहाँ कौओं के हजारों पखं बिखरे हुवे हैं।

दूसरा तीर्थ काकभुशंडि ताल –

हिमालय क्षेत्र का यह पौराणिक ताल चमोली जिले में जोशीमठ से लगभग 40  किलोमीटर आगे ,एक हिमालयी ग्लेशियर के पास स्थित है। यहाँ जाने का मार्ग काफी जोखिम भरा है। जोशीमठ से गोविंदघाट 20 किमी उसके बाद गोविंदघाट से भ्यूंडार 8 किमी का ट्रैक तो ठीक ठाक है लेकिन आगे रिखकोट , करगिल , बांकबारा , राजखरक का रास्ता थोड़ा जोखिम भरा है।

पितृ पक्ष में कौवों का महत्व
काकभुसुंडि ताल , फ़ोटो साभार फेसबुक

काकभुशंडि ताल २ किमी के अंतर्गत बसा हुवा एक सुन्दर अर्धचद्राकार आकृति का ताल है। इस सुन्दर ताल के किनारे , जड़ीबूटियां और ब्रह्मकमल खिले रहते हैं। यह ताल समुंद्रतल से 45000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस ताल का नाम , रामायण के पात्र काकभुशंडि के नाम पर रखा गया है। कहा जाता है , काकभुशंडि ने  कौए के रूप में ,सर्वप्रथम गरुड़राज को भगवान राम की दिव्य कथा इसी स्थान पर सुनाई थी। इस ताल के पास दो बड़े चट्टानें हैं, लोकमान्यताओं के अनुसार ये काकभुशंडि और गरुड़राज हैं। जो रामकथा पर चर्चा कर रहें हैं।

किंदवंतियों के अनुसार इस ताल में कौए आकर ,अपना जीवन समाप्त करते हैं , अर्थात कहा जाता है ,कि कौए मुक्ति के लिए यहाँ आते हैं।  इसलिए इसे मानवो के पवित्र स्थल के साथ कौओं का तीर्थ भी माना जाता है। जैसा की उपरोक्त बताया , माना जाता है कि ,अमृत चखने की वजह से इनकी अप्राकृतिक मृत्यु होती है।

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Note _ कौओ का तीर्थ का संदर्भ  प्रोफेसर dd शर्मा जी की किताब उत्तराखंड ज्ञानकोश पर आधारित है। और सम्पूर्ण लेख  सनातन धर्म की धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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