उत्तराखंड के पौड़ी जिले के थलीसैंण विकासखंड के अंतर्गत कन्डारस्यू पट्टी के बूंखाल में माँ काली का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। माँ काली पौड़ी के राठ क्षेत्रवासियों की आराध्य देवी है।इस मंदिर का कोई प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नही है। इस क्षेत्र के बड़े बुजुर्गों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 18 वी शताब्दी में हुवा है। यह देवी बूंखाल कालिका के नाम से जग प्रसिद्व है ।
बूंखाल काली मंदिर में प्रतिवर्ष मार्गशीष शुक्ल पक्ष में पशुबलि का बहुत बड़ा मेला लगता था। 2014 में पशुबलि बंद होने के बाद यह मेला ,सात्विक मेले में बदल दिया गया। तबसे डोली यात्रा, कलश यात्रा और भव्य पूजन अर्चना इस मेले की पहचान बन गई है। बूंखाल देवी मेले में पहले बकरों और भेड़ों की बलि दी जाती थी। और एक दो नर भैसों की बलि भी दी जाती थी। धीरे धीरे मेला व्यापक हो गया। और बाद में उत्तराखंड में बलि प्रथा बन्द कर दी गई। मेले से पूर्व मंदिर के पुजारी बूंखाल की खाड़ में बिंदी चढ़ाकर कालीचक्र बनाते हैं। स्थानीय रीति रिवाजों के अनुसार मेले में 3 या 5 दिन पूर्व से कालिका माता का मंडाण शुरू हो जाता है । बूंखाल काली मंदिर में पुजारी ,गोदियाल जाती के लोग होते हैं।
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बूंखाल कालिका की कहानी –
किंवदंतियों के अनुसार बूंखाल कालीका माता का अवतरण 400 साल पूर्व पौड़ी जिले के कन्डारस्यूं पट्टी के चौपड़ा गावँ में एक शिल्पकार परिवार में लोहार वंश की एक कन्या के रूप में हुवा था। एक मेंडला के जंगल मे गाय चराते हुए, बच्चों ने खेल खेल में इस कन्या को गड्ढे में दबा कर ऊपर से मिट्टी डाल दी। दो तीन दिन खोजबीन के बाद इस कन्या का कहीं भी पता नही चला तो बाद में वह कन्या अपने माता पिता को स्वप्न में आई और उसने बताया कि उसे मेंडला के जंगल मे गड्ढे में दबाया है । अब वह कालिका बन चुकी है , और उसे बूंखाल की भूमि में काली रूप में स्थापित किया जाय। कहा जाता है कि इस कन्या की मंगनी (सगाई) ग्राम नलई के कल्या लोहार बंश में हो चुकी थी, इसलिए कन्या ने बूंखाल चुना, वहां से नलई गावँ पर भी नजर पड़ती है।
जबकि कुछ लोगो की मान्यता है, कि मेंडला में हरियाली देवी का वास होने के कारण कालिका को वह स्थान छोड़ना पड़ा ।
मान्यता है, कि माँ काली के कहने पर देवी की स्थापना एक गड्ढे में कई गई है। जहां से किसी भी विपत्ती आने से पूर्व वो क्षेत्रवासियों को आवाज देकर सतर्क कर देती थी । कहते हैं गोरखा आक्रमण के समय देवी ने आवाज देकर सूचना दी तो । गोरख़ालियों ने मूर्ति की गर्दन काटकर अपने साथ नेपाल ले गए और धड़ को उसी गड्ढे में उल्टा दबा दिया। कहते हैं तबसे देवी का आवाज देना बंद हो गया ।
कैसे पहुचे मंदिर –
बूंखाल काली मंदिर जाने के लिए बाया रोड सबसे सुगम है। ऋषिकेश से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी तय करके पौड़ी पहुँच कर वहां से वाहन बदल कर या बुकिंग के वाहन से 60 किलोमीटर की दूरी तय करके, पौड़ी ख़िरसु होते हुवे बूंखाल पहुच सकते हैं। कोटद्वार से आने वाले , पाबौ -पैठाणी – बूंखाल मोटर मार्ग से आसानी से बूंखाल पहुँच सकते हैं।
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