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सारांश (Summary):
ऐपण कला (Aipan Art of Uttarakhand) उत्तराखंड की कुमाऊं संस्कृति की एक अत्यंत समृद्ध और आध्यात्मिक लोककला है, जो विशेष रूप से शुभ अवसरों, त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों में भूमि, दीवारों, मंदिरों और आसनों पर बनाई जाती है। इस कला में चावल के पिसे घोल (विस्वार), गेरू, हल्दी और रोली का उपयोग होता है। ऐपण न केवल सजावटी चित्र हैं, बल्कि ये देवताओं का आवाहन और सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत भी माने जाते हैं। यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी मां से बेटी को हस्तांतरित होती है। आज के युग में इसका व्यवसायीकरण हुआ है, लेकिन इसके पारंपरिक रूप की आध्यात्मिक शक्ति और सांस्कृतिक महत्ता आज भी बनी हुई है।
ऐपण कला (Aipan Art of Uttarakhand) | इतिहास | निबंध
1. ऐपण कला क्या है? –
उत्तराखंड की प्रसिद्ध पारंपरिक लोक कला “ऐपण” का शाब्दिक अर्थ होता है – ‘लेपना’ या ‘चित्रांकन’। यह कला खास तौर पर कुमाऊं क्षेत्र में प्रचलित है और इसका उपयोग शुभ कार्यों जैसे पूजा, त्योहार, नामकरण, विवाह, जनेऊ आदि में भूमि, देहरी और मंदिरों को सजाने में किया जाता है। ऐपण मुख्य रूप से अंगुलियों की सहायता से बनाए जाते हैं और इनके लिए चावल के पिसे घोल (विस्वार), गेरू (लाल मिट्टी), हल्दी और रोली का प्रयोग होता है।
2. ऐपण कला का इतिहास –
ऐपण कला का इतिहास पौराणिक काल से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि यह लोककला देवी-देवताओं की पूजा और तांत्रिक साधना का एक माध्यम रही है। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में प्राचीन काल से ही घर के मुख्यद्वार, मंदिरों की दीवारें, तुलसी चौरा, ओखली, हवन कुंड आदि को ऐपण से सजाने की परंपरा रही है।
जहाँ पहले गेरू और विस्वार का इस्तेमाल होता था, वहीं आज की आधुनिक शैली में सफेद और लाल ऑइल पेंट या स्टिकर ऐपण का रूप लेने लगे हैं। हालांकि मूल कला की आध्यात्मिक शक्ति आज भी कहीं न कहीं गहराई से जुड़ी हुई है।
3. ऐपण की पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा –
यह लोककला कभी किसी संस्था से नहीं सीखी जाती थी। एक माँ अपने बच्चों को खेल-खेल में और मदद के बहाने ऐपण बनाना सिखा देती थी। समय के साथ बच्चे इस कला में दक्ष हो जाते और यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही।
4. ऐपण कला के प्रकार (Types of Aipan Art) –
ऐपण केवल सजावटी चित्र नहीं होते, बल्कि ये विशिष्ट धार्मिक और आध्यात्मिक अवसरों के अनुसार बनाए जाते हैं। इसके कई प्रकार हैं, जिनमें प्रमुख हैं:
मुख्य ऐपण प्रकार:-
- वसुधारा ऐपण – घर की सीढ़ियों, तुलसी चौरा, मंदिरों में।
- भद्र ऐपण – मंदिर की बेदी, दरवाज़े की देहली पर।
- शिव पीठ ऐपण
- लक्ष्मी पीठ ऐपण
- नाता ऐपण
- लक्ष्मी आसन ऐपण
- लक्ष्मी नारायण ऐपण
- नवदुर्गा चौकी
- सरस्वती चौकी
- जनेऊ चौकी
- सूर्य दर्शन चौकी
- विवाह चौकी आदि।
इन सभी ऐपणों का निर्माण एक विशेष उद्देश्य और अनुष्ठान के अनुसार होता है। उदाहरण के लिए, लक्ष्मी पग दीपावली पर बनाए जाते हैं ताकि मां लक्ष्मी का स्वागत हो।
5. ऐपण का वस्त्रों पर प्रयोग –
ऐपण केवल भूमि या दीवारों पर ही नहीं, बल्कि कपड़ों पर भी चित्रित किया जाता है, खासकर पिछोड़ा नामक पारंपरिक वस्त्र पर। पहले यह हाथ से बनाया जाता था, अब प्रिंटेड पिछोड़े आने से यह परंपरा कम होती जा रही है।
6. आधुनिकता और ऐपण का व्यवसायीकरण –
आज के युग में समय की कमी और सुविधा की चाह में रेडीमेड स्टिकर ऐपण, ऑइल पेंट ऐपण का चलन बढ़ा है। लेकिन इन नए ऐपणों में वह आत्मिक ऊर्जा, मनोयोग, और ध्यान की शक्ति नहीं होती जो पारंपरिक ऐपणों में होती है।
7. निष्कर्ष –
ऐपण केवल एक कला नहीं, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक आत्मा है। इसका मूल स्वरूप आध्यात्मिक, सामाजिक और पारंपरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमें आधुनिकता को अपनाते हुए भी इस लोककला की मूल भावना और तत्वों को संरक्षित करना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस गौरवशाली परंपरा से जुड़ी रहें।
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