उत्तराखंड की संस्कृति का असली रूप रंग यहाँ के मेलों में समाहित है। उत्तराखंड के मेलों में ही यहाँ की संस्कृति का रूप निखरता है। हिन्दुओं के पवित्र माह माघ में मनाये जाने वाले महापर्व मकर संक्रांति को उत्तराखंड में खिचड़ी संग्रात ,घुघुतिया त्यौहार आदि नाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर जहाँ गढ़वाल में माघ मेला उत्तरकाशी और गिंदी मेला का आयोजन होता है , वही कुमाऊं में सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक मेला उत्तरायणी मेला का आयोजन होता है। इसे स्थानीय भाषा में उत्तरायणी कौतिक भी कहते हैं। कुमाऊं की स्थानीय भाषा में मेले को कौतिक कहा जाता है।
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उत्तरायणी मेला का परिचय –
उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में सरयू ,गोमती और गुप्त भागीरथी के संगम को कुमाऊं क्षेत्र में तीर्थराज प्रयाग के बराबर महत्व प्राप्त है। यहाँ भगवान शिव बागनाथ के रूप में विराजित हैं। पवित्र माघ माह में स्नान दान को विशेष महत्व दिया गया है। मकरसंक्रांति को लोग यहाँ स्नानं करने के लिए आते हैं। मकर संक्रांति के अवसर पर प्रतिवर्ष यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है , जो उत्तरायणी मेला के नाम से सुप्रसिद्ध है। यह मेला लगभग एक सप्ताह तक चलता है। इस अवसर पर दूर -दूर से श्रद्धालु आते हैं ,और मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर संगम में स्नान करते हैं। और स्वयंभू बागनाथ जी के दर्शन करके आशीष लेते हैं। उत्तरैणी कौतिक के शुभावसर पर बच्चों के मुंडन संस्कार ,जनेऊ संस्कार भी होते हैं। इस मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की घूम मची रहती है। उत्तरायणी कौतिक के समय यहाँ का पूरा माहौल संस्कृतिमय हो जाता है। इस मेले में भोटान्तिक और तराई क्षेत्र से व्यपारी अपना सामान बेचने के लिए यहाँ आते हैं। वे यहाँ ऊन से बने सामान ,दन ,पश्मीने , कम्बल आदि और कुटीर उद्योगों में बने चटाई ,काष्ठपात्र और पहाड़ी जड़ी बूटियां ,शिलाजीत ,जम्बू ,गंद्रैणी ,नमक सुहागा आदि बेचने के लिए लाते है।
उत्तरायणी मेले का इतिहास –
प्राचीन काल से ही बागेश्वर कुमाऊं का एक बड़ा व्यपारिक केंद्र रहा है। यहाँ पर कुमाऊं का सबसे बड़ा मेला उत्तरायणी मेला (Uttarayani mela )लगता है। उत्तरायणी कौतिक की शुरुवात इतिहासकार चंद शाशन से मानते हैं। पहले लोग यहाँ मकर संक्रांति के स्नान के लिए आते थे। यातायात के सुचारु साधन न होने के कारण लोग कई दिन पहले से घर से निकल जाते थे। और सरयू के बगड़ में ( कुमाउनी में नदी के तट को बगड़ कहते हैं ) तंबू गाड़ कर रहते थे। और स्नान आदि करके अपने -अपने घरों को लौट जाते थे। रस्ते के मनोरंजन के लिए साथ में हुड़का आदि वाद्य यंत्रो को साथ लाते थे।
रस्ते भर गीत ,छपेली ,जोड़, आदि सांस्कृतिक गीत गाते हुए यहाँ पहुँचते थे। और स्नानं के शुभ मुहूर्त तक भी गीत -संगीत का मनोरंजन चलता रहता था। उस समय ठण्ड से बचने और प्रकाश कि वयस्था अलाव जलाकर की जाती थी। धीरे -धीरे धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से उत्पन्न मेला सांस्कृतिक के साथ व्यपारिक मेला भी बन गया।
स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास की दृष्टि से भी बागेश्वर और उत्तरायणी कौतिक का विशेष महत्व रहा है। 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी मेले के अवसर पर कुमाऊं के राष्ट्रीय नेताओं के नेतृत्व में ,अंग्रेजों द्वारा तैयार किये गए ” कुली बेगार रजिस्टरों “को सरयू में फेंक कर कुली बेगार प्रथा के अंत करने की प्रतिज्ञा ली।
उत्तरायणी के मेला का धार्मिक महत्त्व –
उत्तरायणी कौतिक सांस्कृतिक ,व्यपारिक महत्व के साथ साथ धार्मिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। उत्तरायणी मेला ( Uttarayani mela ) माघ के महीने मकर संक्रांति को मनाया जाता है। सनातन धर्म में माघ महीने को पवित्र महीना माना गया है। इस माह दान और स्नानं का विशेष महत्व बताया जाता है। उत्तरायणी मेला सरयू ,गोमती के संगम पर होता है। यही पर लोग माघ का स्नानं भी करते हैं। कुमाऊं क्षेत्र में बागेश्वर को तीर्थराज प्रयागराज के बराबर महत्व दिया गया है। क्युकी स्वयं भगवान शिव यहाँ व्याघ्र रूप में रहते हैं।
स्कन्द पुराण के वागीश्वर माहात्म्य में बताया गया कि यह स्थान मूलतः महर्षि मार्कण्डेय की तपोस्थली था। कहते हैं जब अयोध्या में भगवान् राम का राजतिलक हो रहा था , तब भगवान राम का राजतिलक देखने की भावना से सरयू भी हिमालय से चल पड़ी। जब सरयू जी यहाँ पर पहुंची तो उनके रस्ते में महर्षि मार्कण्डेय तपस्या कर रहे थे। मजबूरी में सरयू को यहाँ रुकना पड़ा। मगर सरयू की राजतिलक में पहुंचने की बहुत इच्छा थी और वो परेशान हो रही थी। उसकी परेशानी पर माता पार्वती को दया आ गई।
उन्होंने भगवान शंकर से इस परेशानी का उपाय ढूढ़ने को कहा। माता पार्वती के अनुरोध पर भगवान शिव ने यह उपाय ढूंढा कि ,माता उस स्थल पर गाय बनकर गई और भगवान् शिव वहां ब्याघ्र (बाघ) बनकर गाय पर आक्रमण करने लगे। गौमाता को संकट में देख ,महर्षि मार्कण्डेय अपनी तपस्या से उठ कर गौमाता को बचाने को लपके !और मौका पाकर सरयू आगे को बह निकली। भगवान शिव ने इस स्थान पर व्याघ्र का रूप धारण किया था। इसलिए यहाँ पर शिवलिंग की स्थापना की गई और इस स्थान का नाम व्याघ्रेश्वर या बागेश्वर पड़ा।
उत्तरायणी मेले का सांस्कृतिक महत्त्व –
सांस्कृतिक रूप में उत्तरायणी मेले का बहुत महत्व है। उत्तरायणी मेला कुमाऊं मंडल की अलग -अलग संस्कृतियों के मिलन का प्रमुख केंद्र है। एक हफ्ते तक चलने वाले उत्तरायणी मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रहती है। विभिन्न क्षेत्रों से आये हुए कलाकार यहाँ अपने अपने क्षेत्र के गीत संगीत की प्रस्तुति देते हैं। भगनौल ,बैर ,जोड़ , न्योली आदि कुमाउनी ,सीमांत कुमाउनी भोटान्तिक गीत विधाओं की महफ़िल जमी रहती है।
यहाँ कुमाऊं के और भोटान्तिक क्षेत्रों के लोग एक दूसरे से मिलते हैं , एक दूसरे की स्थानीय स्तर की संस्कृति को समझते हैं। विचारों और भावनाओं का आदान प्रदान होता है। सरल शब्दों में कहा जाय तो उत्तरायणी मेला कुमाउनी संस्कृति के लिए संजीवनी बूटी का काम करता है।
अंत में –
प्राचीन काल से ही मेला (कौतिक) पहाड़ी जीवन का अभिन्न अंग रहा है। मेले दुर्गम पहाड़ो में अलग अलग पल रही समृद्ध संस्कृति को एक मंच पर लाने का माध्यम है। पहाड़ के लोगों की पहाड़ जैसी कठोर जीवन में सरसता घोल देते हैं मेले।
इतना ही नहीं , मेला पहाड़ के लोगो के रोजगार के प्रमुख अवसरों में एक होता है। आजकल डिजिटल क्रांति का समय है ,दुनिया बहुत छोटी हो गई है। लेकिन प्राचीन काल अपनों से मिलने का प्रमुख माध्यम रहता था। कुछ लोग इसलिए भी कौतिक जाते थे ,कि उन्हें वहां नए लोग नए चेहरे देखने को मिलेंगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उत्तराखंड के जनजीवन में पहले भी मेलों का बहुत महत्व था और आगे भी बना रहेगा।
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