Sunday, November 17, 2024
Homeसंस्कृतित्यौहारघी संक्रांति उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व की संपूर्ण जानकारी

घी संक्रांति उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व की संपूर्ण जानकारी

घी संक्रांति ( ghee sankranti ) उत्तराखंड का प्रमुख लोकपर्व है। घी संक्रांति, घी त्यार, ओलगिया या घ्यू त्यार  प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह की सिंह संक्रांति के दिन मनाया जाता है। 2024 में घी संक्रांति 16 अगस्त 2024 को शुक्रवार के दिन मनाई जाएगी। इस दिन से सूर्य भगवान सिंह राशी में विचरण करेंगे।

भगवान सूर्यदेव जिस तिथि को अपनी राशी परिवर्तन करते है। उस तिथि को संक्रांति कहा जाता है। और उत्सव मनाए जाते हैं। उत्तराखंड में मासिक गणना के लिए सौर पंचांग का प्रयोग होता है। प्रत्येक संक्रांति उत्तराखंड में माह का पहला दिन होता है, और उत्तराखंड में पौराणिक रूप से और पारम्परिक रूप से प्रत्येक संक्रांति को लोक पर्व मनाया जाता है। इसीलिए उत्तराखंड में कहीं कही स्थानीय भाषा मे त्यौहार को सग्यान (संक्रांति) कहते हैं।

घी संक्रांति (ghee sankranti) की मान्यताएं –

उत्तराखंड के सभी लोक पर्वो की तरह घी संक्रांति भी प्रकृति एवं स्वास्थ को समर्पित त्यौहार है। पूजा पाठ करके इस दिन अच्छी फसलों की कामना करते हैं। अच्छे स्वास्थ के लिए,घी एवं पारम्परिक पकवान खाये जाते हैं।

घी त्यार के दिन घी का प्रयोग जरूरी होता है

उत्तराखंड की लोक मान्यता के अनुसार इस दिन घी खाना जरूरी होता है। कहते हैं, जो इस दिन घी नही खाता उसे अगले जन्म में घोंघा(गनेल) बनना पड़ता है। घी त्यार के दिन  खाने के साथ घी का सेवन जरूर किया जाता है, और घी से बने पकवान बनाये जाते हैं। इस दिन सबके सिर में घी रखते हैं। बुजुर्ग लोग जी राये जागी राये के आशीर्वाद के साथ छोटे बच्चों के सिर में घी रखते हैं। और उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में घी, घुटनो और कोहनी में लगाया जाता है।

Best Taxi Services in haldwani

पौराणिक मान्यताओं एवं आयुर्वेद के अनुसार घी संक्रांति के दिन घी का सेवन करने से निम्न लाभ होते है –

  • घी संक्रांति के दिन घी का सेवन करने से ग्रहों के अशुभ प्रभावों से रक्षा होती है। कहा जाता है, जो इस दिन घ्यू (घी ) का सेवन करते हैं,उनके जीवन मे राहु केतु का अशुभ प्रभाव नही पड़ता है।
  • घी को शरीर मे लगाने से, बरसाती बीमारियों से त्वचा की रक्षा होती है। सिर में घी रखने से सिर की खुश्की नही होती। मनुष्य को चिंताओ और व्यथाओं से मुक्ति मिलती है। अर्थात सुकून मिलता है। बुद्धि तीव्र होती है।
  • इसके अलावा शरीर की कई व्याधियां दूर होती हैं। कफ ,पित्त दोष दूर होते है। शरीर बलिष्ठ होता है।

घी त्यार के दिन उपहार (भेंट) दिए जाते हैं

घी संक्रांति या घी त्यार के दिन दूध दही, फल सब्जियों के उपहार एक दूसरे को बाटे जाते हैं। इस परम्परा को उत्तराखंड में ओग देने की परम्परा या ओलग परम्परा कहा जाता है। इसीलिए इस त्यौहार को ओलगिया त्यौहार, ओगी त्यार  भी कहा जाता है।

यह परम्परा चंद राजाओं के समय से चली आ रही है, उस समय भूमिहीनों को और शासन और समाज मे वरिष्ठ लोगों को उपहार दिए जाते थे। इन उपहारों में काठ के बर्तन ( स्थानीय भाषा मे ठेकी कहते हैं ) में दही या दूध और अरबी के पत्ते और मौसमी सब्जी और फल दिये जाते थे। अंग्रेजी शासन काल में बड़े दिन की डाली के रूप में दी जाने वाली भेंट के सामान ,एक ठेकि दही ,मुट्ठीभर गाबा ( अरबी की कोपलें ) भुट्टे खीरे आदी दिए जाते थे।

Ghee sankranti photo
Happy ghee sankranti

अंग्रेजों ने बड़े दिन का उपहार इस दिन नियत किया था :-

बड़े दिन का उपहार भाद्रपद के इस दिन नियत किया गया था। क्युकी इस दिन या इस महीने उपहार के सारे सामान आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। यही परम्परा आज भी चली आ रही है। इस दिन अरबी के पत्तों का मुख्यतः प्रयोग किया जाता है। सर्वोत्तम अरबी के पत्ते और मौसमी फल सब्जियां और फल अपने कुल देवताओं को चढ़ाई जाती है। उसके बाद गाँव के प्रतिष्ठित लोगो के पास ( पधान जी ) उपहार लेकर जाते हैं। फिर रिश्तेदारों को दिया जाता है।

उपहार के अर्थ में प्रचलित इस ओळग शब्द का सन्दर्भ  में कुछ लोगों का मानना है कि इसका आधार मराठी भाषा का ओळखणे या गुजरात के ओलख्यु से हो सकता है। वहां की लोक परम्परानुसार लोक देवता को दुग्ध भेंट की जाती है तो उसे स्थानीय भाषा में इस शब्द का प्रयोग करते हैं।

प्राचीन काल में गुजरात और महाराष्ट्र से ब्राह्मण वर्ग के कई लोग उत्तराखंड में आकर बसे।  हो सकता उन्ही से यह शब्द ओळग प्रचलन में आया हो। और इस दिन भेंट देने के कारण इसे ओलगिया त्यौहार कहते हैं।

घी संक्रांति

घी संक्रांति के दिन उत्तराखंड के पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं

घी त्यार के दिन उत्तराखंड के पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं। घी संक्रांति के दिन पूरी , बड़े अरबी के पत्तों की सब्जी ,खीर पुए आदि बनाये जाते हैं। इस दिन उत्तराखंड का एक विशेष पकवान बनाया जाता है, जिसे बेड़ू रोटी कहा जाता है। बेड़ू रोटी को आटे में उड़द की दाल पीस कर डाली जाती है। इस समय पहाड़ी खीरा काफी मात्रा में होते हैं, इसलिए इस त्यौहार पर पहाड़ी खीरे का रायता भी जरूर बनाया जाता है।

घी संक्रांति पर मान्यता है कि घी खाना जरूरी नहीं तो घोंगा (गनेल) बन जाओगे –

घी संक्रान्ति पर हमारे पूर्वजों ने एक परंपरा बनाई, कि इस दिन घी खाना जरूरी है, नही तो घोंगे का जन्म मिलेगा। उस समय चाहे किसी भी परिस्थिति को ध्यान में रख कर यह परंपरा बनाई हो। लेकिन देखा जाय तो हमारे पूर्वजों ने यह परंपरा हमारे स्वास्थ हित को ध्यान में रख कर बनाई है।

क्योंकि घोंघा (गनेल) सुस्त रहता है। बहुत धीरे चलता है। और घी खाने से शरीर बलिष्ठ होता है ,और चुस्ती फुर्ती आती है। इसलिए हमारे पूर्वजों ने शरीर हित को ध्यान में रखते हुए इस परंपरा और उत्सव की शुरुवात की होगी। इस परंपरा का अर्थ है, अगर घी नही खाओगे, तो घोंघा की तरह सुस्त हो जाओगे।

गढ़वाल में घी संक्रांति :-

गढ़वाल मंडल के चमोली जिले में इसे  घीया संग्रात के अलावा म्योल मुण्डया संगरात भी कहा जाता है। इस दिन धान के खेतों के बीच मेहल की टहनी रोपने का रिवाज है। धान के खेतों में मेहल की टहनी रोपने की यह रिवाज अल्मोड़ा के द्वाराहाट क्षेत्र के कतिपय गावों में भी है। जोहार में घी संग्रात एक दिन पहले मनाई जाती है।

घी संक्रान्ति की शुभकामनाएं –

घी संक्रान्ति के दिन , बड़े बुजुर्ग अपने से छोटो के सिर में और नवजात बच्चों के तलवो में घी लगाते हुए आशीष वचन जी राये जागी राये बोल कर अपना आशीर्वाद देते हैं। घी संक्रांति की शुभकामनाएं देते हैं।

जी रये जागी रये,
यो दिन यो बार भेंटने रये।
दुब जस फैल जाए,
बेरी जस फली जाईये।
हिमाल में ह्युं छन तक,
गंगा ज्यूँ में पाणी छन तक,
यो दिन और यो मास
भेंटने रये।।

उपसंहार –घी त्यौहार उत्तराखंड के प्रमुख लोक पर्वो में प्रसिद्ध त्यौहार है। प्राचीन काल मे संचार के साधन कम होने के कारण , अपनी संस्कृति अपने लोक त्यौहारों के प्रति इतनी जनजागृति नही थी। वर्तमान में डिजिटल युग आने के बाद स्थानीय त्यौहारों के प्रति जनजागृति बढ़ गई है। लोग लोक पर्वों के अपने फोन में बड़े चाव से व्हाट्सप स्टेटस लगाते हैं।

लोकपर्वों की शुभकामनाएं भेजते हैं। नई और आधुनिक शिक्षा प्रणाली के तहत बच्चो को घी संक्रांति पर निबंध लिखने का होमवर्क मिलता है, या तो अध्यापक स्कूलों में उत्तराखंड के लोक पर्व पर निबंध या लेख लिखवाते हैं। हमे इसी प्रकार ,अपनी संस्कृति, अपने त्योहारों अपनी परंपरा को सहेजकर आदिकाल तक चलायमान रखना है।

इन्हे भी पढ़े –

  1. हई दशौर या हई दोहर :- कुमाऊं के किसानों का त्यौहार
  2. बिरखम या बिरखम ढुङ्ग ,उत्तराखंड के पाषाणी प्रतीक
  3. देवभूमी दर्शन टीम के साथ व्हाट्सप्प पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें।
Follow us on Google News Follow us on WhatsApp Channel
Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
RELATED ARTICLES
spot_img
Amazon

Most Popular

Recent Comments