कुमाऊनी भाषा के प्रसिद्ध कवि ,व्यंग्यकार, एवं हास्यकवि शेर सिंह बिष्ट “अनपढ़ ” जी के नाम से उत्तराखंड कुमाऊँ के लगभग सभी लोग परिचित हैं । आज 20 मई को उनकी पुण्यतिथि है। कुमाउनी कविता के संरक्षण और विकास में शेर सिंह बिष्ट , शेरदा अनपढ़ का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।
शेरदा की कविताओं में,पहाड़ की समस्याएं, पहाड़ का दर्द सब कुछ समाया था। सरल शब्दों में कहें ,तो उनकी कविताओं में पूरा पहाड़ समाया होता था। आइये जानते हैं कुमाऊँ के प्रसिद्ध कवि शेर सिंह बिष्ट उर्फ शेरदा अनपढ़ जी के बारे में ।
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शेर सिंह बिष्ट -शेरदा अनपढ़ का जन्म परिचय –
- जन्मतिथि – 03 अक्टूबर ,1933
- जन्म स्थान – अल्मोड़ा , माल गांव
- पिता का नाम – श्री बचे सिंह बिष्ट
- माता जी का नाम – श्रीमती लछिमा देवी
- पत्नी – श्रीमती गौरी देवी
- देहावसान – 20 मई 2012
शेरदा अनपढ़ का आरम्भिक जीवन –
शेर सिंह बिष्ट उर्फ शेरदा अनपढ़ का जन्म 03 अक्टूबर 1933 में अल्मोड़ा के माल गांव में हुवा था। इनके पिता श्री शेर सिंह बिष्ट जी का बचपन मे ही देहांत हो गया था। पिता जी का स्वास्थ्य ज्यादा खराब रहने के कारण इनको, घर और जमीन दोनो बेचने पड़े। इस कारण इनके परिवार की आर्थिक स्थिति और ज्यादा बिगड़ गई थी।
पिता के स्वर्गवास के बाद इनकी माता जी , श्रीमती लछिमा देवी ने, लोगो के खेतों में, मजदूरी करके सारे परिवार भरण पोषण किया। पुराने जमाने मे पहाड़ो में पढ़ाई लिखाई पर इतना ध्यान नही दिया जाता था। इसी वजह से शेर सिंह बिष्ट,शेरदा अनपढ़ कभी स्कूल नही गए।
शेरदा ने अपनी माँ को मदद देने के लिए, बचुली देवी नामक एक अध्यापिका के घर मे पहली नौकरी की। और वही शिक्षिका उनकी भी शिक्षिका बनी अर्थात, अध्यापिका महोदया ने शेरदा को प्राथमिक शिक्षा दी। प्राथमिक शिक्षा लेने के बाद शेर सिंह बिष्ट 12 साल की उम्र में शेरदा आगरा चले गए, वहाँ उन्होंने छोटी मोटी नौकरी की, उसके बाद वो सौभाग्यवश भारतीय सेना में भर्ती हो गए।
31 अगस्त 1940 में वो फौज की बच्चा कंपनी में भर्ती हो गए, कुछ साल बच्चा कंपनी में गुजरने के बाद ,जब 18 साल के हो गए तब फौज के सिपाही बन गए। अपनी फ़ौज में भर्ती होने की खुशी उन्होंने, कविता में इस प्रकार व्यक्त की है
“म्यर गोलू, गंगनाथ मेहू दैन है, पड़ी भान माजनी हाथों मा, रैफल आई पड़ी।।
शेर सिंह बिष्ट – शेरदा अनपढ़ का सामाजिक एवं साहित्यक जीवन –
शेर सिंह बिष्ट को फ़ौज में ड्राइवर का काम मिला था। फौज में उनको तपेदिक (tb) की बीमारी हो गई थी। उन्हें इलाज के लिए पूना के मिलिट्री अस्पताल 2 साल भर्ती रहना पड़ा। 1962 कि लड़ाई में घायल सैनिको से मुलाकात ने शेर दा को अंदर तक झकझोरा ,और उन्होंने अपने इसी दर्द को कविता के रूप में समाज के पटल पर रखा।
1963 में पेट मे अल्सर की बीमारी की वजह से वो अपने घर आ गए। अपने घर अल्मोड़ा में शेरदा को कवि चारु चंद पांडेय और अन्य कवियों का सानिध्य प्राप्त हुआ। शेरदा की मुलाकात ब्रजेन्द्र लाल शाह जी से भी हुई । ब्रजेन्द्र लाल शाह जी शेरदा की कविताओं से काफी प्रभावित हुए।
उन्होंने शेरदा को बताया कि , नैनीताल में “गीत एवं नाट्य प्रभाग ” का सेंटर खुल गया है, तुम वहाँ आवेदन कर दो। शेरदा का वहाँ चयन हो गया।और शेरदा को एक नई ऊर्जा, नया लक्ष्य मिला। और शेरदा अपनी कविताओं में पहाड़ के दर्द पहाड़ की समस्याओं को उकेरना शुरू किया।
शेर दा ने नए गीत, नई कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। कुछ कविताएं साहित्यिक , कुछ मंच के लिए, उनकी हर कविता में पहाड़ के मुद्दे मुख्यतः रहते थे। गीत एवं नाट्य प्रभाग के अधिकारी शेरदा को पहाड़ का रवींद्रनाथ टैगोर कहते थे।शेरदा कभी स्कूल नही गए इसलिए उन्होंने अपने नाम के पीछे अनपढ़ शब्द जोड़ रखा था।
शेर सिंह बिष्ट ,शेरदा अनपढ़ की प्रमुख रचनाएं।
- हस्णे बाहर
- दीदी बैणी
- जाठीक घुंगुर
- ये कहानी है, नेफा और लद्दाख की
- मेरी लाटी पाटी
- कठौती में गंगा
- हमार मैं बाप
- फचेक
- शेरदा समग्र
- शेरदा संचयन
- मुर्दाक बयान
शेरदा का देहावसान ( शेरदा की मृत्यु )
पहाड़ के रवींद्रनाथ टैगोर कहे जाने वाले शेरदा, अतुलनीय काव्य प्रतिभा के धनी थे, वो एक मार्मिक कवि थे। जो अपनी हास्य कविताओं द्वारा पहाड़ और वहाँ के जन मानस के मर्म उकेरता था। 20 मई 2012 को शेरदा ने हमारे बीच अंतिम सांस ली। शेरदा सरल अर्थों में एक मानवीय कवि थे।
शेरदा की एक और प्रसिद्ध कविता , को छे तू ? ( तुम कौन हो ? )
शेरदा अनपढ़ की एक प्रसिद्ध कविता है। जिसका शीर्षक है – को छे तू
भुर भुर उज्याई जैसी, जाणि रतै ब्याण,
भिकुवे सिकड़ी जसि, उडी जै निसाण.।
खित कने हसण, और झाऊ कने चाण।
क्वाथिन कुतकैल जै लगणु, मुखक बुलाण।
मिसिर जसि मिठ लागूं, क्वे कार्तिकी मौ छे तू।
पूषे पाल् जसी, ओ खड़्युनी को छै तू?
दै जसी गोरी उजई, और बिगोत जै चिट्टी।
हिसाऊ किल्मोड़ी जसि, मुणी खट्ट मुणी मीठी।
आँख की तारी जसि, आंखों में ले रीटी।
ऊ धेई फुलदेई है जो, जो धेई तू हिटी।
हाथ पाटने हराई जाँछै, के रयूडी द्यो छै तू।
सूर सुरी बयाव जसी, ओ च्यापिणी कोछै तू?
जालै छै तू देखि छै, भांग फूल पात में।
और नौंड़ी जसि बिलै रै छै, म्येर दिन रात में।
को फूल अंग्वाव घालु, रंग जै सबु में छैं।
न तू क्वे न मैं क्वे ,मैं तू में और तू मैं में छै।
तारों जसि अन्वार हंसे धार पर जो छै तू।
ब्योली जसि डोली भितेर, ओ रूपसी को छै तू?
उतुके चौमास देखि छै, तू उतुके रयूडी
सयून की सनगी देखि छै उतुके स्यून
कभी हरयाव चडू और कभी कुंछई च्यूड
गदुवेक छाल भिदेर तू काकडी फुलयुङ
भ्यार बे अनार दाणी, और भितेर पे स्यो छै तू।
नौव रति पे जाणि, ओ दाबणी को छै तू?
ब्योज में क्वाथ में रेछै, और स्वेणा में सिराण।
म्येर दगे भल लगे, मन में दिशाण।
शरीर मातण में, त्वी छै तराण।
जाणि को जुग बटि, जुग-जुगे पछ्याण।
साँसों में कुत्कणै है, सामणी जै क्ये छै तू?
मायदार माया जसी, ओ लम्छिणी को छै तू?
निवेदन
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